परिचित प्रश्न नई समीक्षा | Parichit Prashn Nai Samiksha

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Parichit Prashn Nai Samiksha by सत्यपाल चुघ - Satyapal Chugh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तुलसीदास की समन्वयं साधना (५ सामाजिक-धामिक प्रवृत्तियों के लोगों के सम्पकं मे भ्राए । उन्होने गार्हस्थ्य की चरम भ्रासक्ति का भ्रनूभव भी किया भ्रौर उसी शक्ति का ऊध्वे साधना में उपयोग भी हुझा । साक्षात अनुभवों के साथ अपार ग्रन्थज-ज्ञान ने भी उनके हृष्टिकोश को व्यापक बनाया । समन्वय साधना के प्रेरणा तथा निर्मायकं पक्ष पर प्रकाश डालने के पश्चात श्रः हम इसके स्वरूप का विश्लेषण करेंगे । १. विभिन्‍न ग्रन्थों का सार-विचार तुलसीदास का 'मानस' केवल कवि-प्रेरणा का परिणाम नहीं, वरलू वह्‌ एक महाकवि के गम्भीर अरध्ययन-चितन का सुफल है। तुलसी ने 'मानस' का ताना पुराण निगमागम सम्मतं' होना स्वीकार किया है। वाल्मीकि रामायण, महारामायण, आध्यात्मरामायण, संस्कृत के नाटको--्रसन्नराघव' हनुमन्नाटक' “रघुवंश श्रादि का ही नही, प्राकृत अपभ्रन्श के विपुल राम-साहित्य--विशेषरूप से स्वयं भूदेव (७९० ई०) की रामायण--का अवगाहन कर के तुलसी ने श्रपने समय के उपयुक्त मौलिक प्रतिभा का उपयोग करते हुए 'मानस' की रचना की । अतैव तुलसीदास राम-कथा की एक लम्बी विराट परम्परा के उज्ज्वल रत्न बन कर उपस्थित हुए । उन्होंने इस परम्परा के पृर्ववर्ती जाज्वल्यमान' चारणों की भी वन्दना की है--- ब्यास आदि कावे पुगव नानता। जिन्ह सादर हरिचरित बखाना ॥ चरन कमल बंद तिन्ह केरे। पुरवह सकल मनोरथ मेरे !। कलि के कचिन्ह्‌ करं परनामा । [অন্ত बरने रघुपति-गुन भ्रामा ॥ जे प्राकृत केवि परम सयाने। भाषा जिन्ह॒ हरिचरित खाने ॥




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