कवि - रहस्य | Kavi Rahasya

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Kavi Rahasya by महामहोपाध्याय गंगानाथ झा - Mahamahopadhyaya Ganganath Jha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) 'ठटीका' इत्यादि नहीं लिख कर 'पज्जिकाः लिखा था। तब से उस श्न्थ को ल्लोग 'पज्िकामीमांसा! या 'मीमांसापश्जिका? भी कहने लगे रै । [इस ग्रन्थ से मुझे अपनो प्रभाकर्मीर्मासा लिखने में बड़ी सहायता मिली थी--अभ्रब यह काशी में छप रहा है| | पर 'पज्िका पद का क्‍या असल अथे है सो ज्ञात नहीं था--नाना प्रकार के तक हम लोग किया करते थे । राजशेखर के ही ग्रन्थ को देखकर यह पता चला कि एक प्रकार की टीका ही का नाम 'पश्िका” है। पर इतना कहना पड़ता है कि पश्जिका? का जेसा लक्षण ऊपर कहा हे---जिसमे कवल विषम पदों के विवरण हों---सो लक्षण उक्त ग्रन्थ में नहीं लगता । यह ग्रन्थ बहुत विस्तृत हे । उसके मूल प्रभाकररचित बृहती के जहाँ १०० पृष्ठ हैं तहाँ ऋजुविमला के कम से कम ५०० पृष्ठ होंगे । ऐसे ग्रन्थ को हम 'विषमपदटिप्पणी” नहीं कह सकते । शासत्र के किसी एक अंश को लेकर जो ग्रंथ लिखा गया उसे प्रकरण” कहते रै । ग्रन्थों के अवान्तर विभाग “अध्याय! “परिच्छेदः इत्यादि नाम से प्रसिद्ध रै । 'साहित्य” पद का असली अथे क्या है सो भी इस ग्रन्थ से ज्ञात होता हे । शब्द ओर अथे का यथावत्‌ सहभाव” अधात्‌ साथ होना यही 'साहित्य” पद का योगिक अथे हे--सहितयो: भावः (शब्दा- थेयो:) । इस अथे से साहित्य” पद का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो जाता है। साथेक शब्दों के द्वारा जो कुछ लिखा या कहा जाय सभी 'साहित्य? नाम में अन्तर्गत हो जाता है--किसी भी विषय का ग्रन्थ हो या व्याख्यान हो--सभी साहित्य” है । ( रे ) साहित्य के विषय में एक रोचक और शिक्षाप्रद कथानक है पुत्र की कामना से सरस्वतीजी हिमालय मं तपस्या कर रहीथीं




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