विद्यार्थियोंका सच्चा मित्र | Vidhyartiyon Ka Sachcha Mitra

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Vidhyartiyon Ka Sachcha Mitra by नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निरोग रहना मनुष्य माच्रका ध्म हे 1 ই कासमें श्रेष्ठ रहनेके छोमसे अशक्तिके होते हुए भी बहुतोंकों परिश्रम- पूरवैक विद्याम्यास करना पडता हैं | इससे वे जह्दी जढदी, थोड़े थोड़े दिनोंमें वीमार पड़ जाते हैं | तीन-चार पतछी पतली रोठियाँ और एक दो चम्मच मात खा लेनेसे हा गले तक पेट मर जाता है । यदि -कमी कोई जरासी भारी चीज खा ली, तो उस दिन रामको भूखका पता नदीं रहता । यद्यपि सभीकी दशा ऐसी नहीं है, फिर भी सोमेंसे पचास या पचहत्तर विद्यार्थी तो ऐसे हो होते हैं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं | ओर तुम्हारा शरीर ही क्‍या अच्छा है बूढ़ोंकी तरह तो वेठ हो ! अच्छा आज जिस विषयका विचार करना है, वह यह है-- हम सबको सुखकी इच्छा रहती दै | सुखका अर्थ यही है कि हमारा मन आनन्दसे रहे और हमें अपनी इच्छाके अनुसार सव चीजं मिल्ती जय । प्रर शरीर निवे होने मन प्रसन्न नहीं रहता | शरीर ठीक होने पर जो चीजें वहुत रुचिकर माम होती हैं बीमार हो जाने पर वे नहीं रुचती | ज्वर या बुखारकी हालुतमें, अच्छी बड़ी पतंग, खूब वढ़िया मॉजा और डोरकी रीछ देकर यदि कोई तुम्हें मकानकी छतपर जाकर पतंग उड़ानेके लिए कहे तो क्या यह तुम्हें रुचेगाः उस वक्त तों तुमको मजेदारसे मजेदार चीज भी रुचिकर न म्म होगी । इससे यह निश्चय होता है कि संसारम हम रोगोके समग्र सुखका आधार अधिकतर नीरोग शरीर । वीमार मनुष्यसे पेटमर खाना नहीं खाया जाता, रातमें अच्छी नौंद नहीं आंती, वाहर घूमा फिरा नहीं जाता और संक्षेपमें कोई मी काम निश्चयके अनुसार उससे नहीं हो सकता:। अच्छे निरोग सुदृढ़ ५




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