हमारी - उलझन | Hamari Uljhan

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Hamari Uljhan by श्री भगवती चरण वर्मा - Shri Bhagwati Charan Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परिप्रदण आर दान १ झपनी पत्नी तक दान में दे देते थे। और इस दानवीर दिन्द समाज का नंतिक पतन भी इतना अधिक हुआ कि दज्नारों वर्ष से द्विन्दू दूसरों की गुलामी कर रहे हैं | दान देने वाे को जितना अधिक गिराता है उससे अधिक छेने वाढे को गिराता है और इस लिए दान अपने प्रति तो अपराध है दी उससे अधिक समाज के प्रति अपराध है । मैंने ऐसे मनुष्यों को देखा है जो कोई काम नह्दीं करना चादते जो जीवित रहने के लिए परिश्रम नहीं करना चाहते जिन्होंने भिक्षा- वृत्ति को अपनी आजीविका बना छो हैं जो शर्रार से नद्दों बल्कि आत्मा से अपादिज बन गए हैं । और मैं समा हैं कि ऐसे छोग मनुष्यता के नाम पर कल हैं । पर सवाल यह है कि ऐसे लोगों को जन्म किसने दिया ? मनुष्यों को इतना कायर अकमंण्य और नपुंसक बनाया किसने ? उत्तर साफ है -- इन दान देने वालों ने । परिप्रहश पाप है--ऐसा पाप जिसका कोई प्रायश्चित्त नहीं । और दान उससे भी अधि भयानक पाप है । ए ओर वह परि- अहण को प्रेरित करता है दूसरी श्रोर वद्द संसार में अपादि जपन को गुल्ामो का अकसण्यता को बढ़ाता है । परिय्रदण समाज के लिए ऐसा विष है. जिसका उपचार किया जा सकता है लेकिन दान ऐसा विष है जिसका कोई उपचार ही नददीं। परिभ्रदस निरब्त पर शारोरिक उत्पीड़न है दान निबल को झआात्मिक सत्यु है ।




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