गीता प्रवचन | Geeta-parvachan

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Geeta-parvachan by विनोबा - Vinoba

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रास्ताविक आख्यायिका--अजुनका विषाद १७ तो उसमें खूबी ही कया ! हम सिद्टीकी हँड़िया तो हैं नहीं, हम तो चिन्मय है । | इस सारे विवेचनसे एक वात आपकी समश्चमे आ गयी होगी कि गीताका जन्म, स्वधमेमे वाधक जो मोह दै, उसके निवारणाथे हा है। अजुन पर्म-संमूढ़ हो गया था। स्वधमंके विषयमे उसके मनसे मोह पैदा हो गया था। श्रीकृष्णके पहले उछहनेके बाद यह बात अजन खुद ही स्वीकार करता है। वह मोह, वह ममत्व, वह आसक्ति दूर करना मीताका सख्य कास दहे । इसीलिए सारी गीता सुना चुकनेके बाद भगवानने पूछा है--“अजुन, तुम्हारा सोह चढा गया न ९”? और अजुन जवाब देता है--“हाँ, सगवन्‌, सोह नष्ट हो गया, मुझे स्वधर्मका भान हो गया।”! इस तरह यदि गीताके उपक्रम और उपसंहारकी मिलाकर देखें, तो सोह-निरसन ही उसका तात्पये निकछता है। गीता ही नहीं, सारे महाभारतका यही उद्देश्य है। व्यासजीने महाभारतके आरंभमें ही कहा हे कि छोकहृदयके मोहावरणको दूर करनेके लिए मैं यह इतिहास-प्रदीप जला रहा हूँ । | । ( 9 ) ऋजु-बुद्धिका अधिकारी आगेकी सारी गीता समझनेके लिए अजुनकी यह भूमिका हमारे बहुत काम आयी है; इसलिए तो हम इसका आभार मानेगे दी, परन्तु इससे और भी एक उपकार है । अञंनकी इस भूमिकामें उसके मनकी अत्यंत ऋजुताका पता चलता है। खुद अजनः खब्दका अर्थं ही নত अथवा 'सरल स्वभाववाला? है। उसके मनमें जो कुछ सी विकार या विचार आये, वे सव उसने दिख खोलकर भगवानके सामने रख दिये। मनसे कुछ भी छिपा नहीं रखा ओर वहु अंतमे ` श्रीकृष्णकी इरण गया । सच पूछिये तो वह पहलेसे ही ऋृष्णकी शरणमें था। ऋष्णको सारथी वनाकर जबसे उसले अपने घोड़ोंकी छगाम उनके हाथोंमें पकड़ायी, तभीसे उसने अपनी मनोवृत्तियोंकी छगास भी उनके हाथोंसें ২২. ৯৯২ (= 9 सोप देनेकी तेयारी कर छीथी। आद्ये, हस भी ऐसा ही करें। ` अजैनके पास तो छृष्ण थे, हमें कृष्ण कहाँ मिलेंगे” ऐसा हम न कदे । हे | |




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