पन्तजी का नूतन काव्य और दर्शन | Pantji Ka Nutan Kavy Aur Darshan

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Pantji Ka Nutan Kavy Aur Darshan by विश्वम्भरनाथ उपाध्याय - Vishwambharnath Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दाशंनिक निरपेक्षता का विकास सुमित्रानन्दन पनत विकास-शील कवि माने जाते हैं। उन्होंने स्पयं लिखा है. “लेखक एक सजीव अस्तित्व या चेतना है और वह मिन्न भिन्न समय पर अपने युग के स्पर्णो तथा संदेदनों से किंस प्रकार आन्डोलित होता है, उन्हे किस रुपसे अहण तथा प्रदान करता दै, इसका निर्णय ही उसके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने मे अधिक उपयोगी सिद्ध होता है 1 इसका अर्थ यह है किं पन्तजी समय-समय पर युग के स्पर्शा से आन्टोलित दते रद दै किन्तु साथ ही उन युग-स्पर्शो को एक विशेप रूप में ग्रहण मी करते रहे है । प्राय, यह मान लिया जाता है कि “वीणा-पश्चव! काल में पन्तजी स्वच्छदन्तावाद के अनुगामी ये, प्रकृति में सौन्द्रय व स्रष्टा के दशक, आस्या, युगवाणी, युगान्तः काल मे वे समाजवाद से अभाधित रहे तथा स्वर्ण-किरण, स्वर्णधूलि, उत्तरा, रततशिखिर आदि म अध्यात्मवादी (अरविन्दवादी अध्यात्म के विश्वासी) हो गए। यह ठीक है, परन्तु हमे यह न भूलना चाहिए कि पन्तजी अपने मौलिक रूप सें आस्था-शील कवि हैं, अध्यात्मबाद से निश्चित मान्यताओं में वे सदा विश्वास करते रहे है ! इसीलिए समाजवादी प्रभाव को भी उन्होने इस प्रकार अ्रहण किया है कि उससे उनके पूर्व की मान्यताओं पर कोई दुष्प्रभाव नही पड़ता है। और स्पष्ठता से कहा जाय तो यह कि वे सदा ईश्वर और आत्मा में विश्वास करते रहे है, अपने समाजवादी दोर में भी | थुगवाणी व युगान्त की अनेक कविताएँ इसकी प्रमाण हैँ । स्यं पन्तजी ने अपने सारे काव्य की किंसी मोड को पूवं की स्थिति से पूरणतया भिन्न स्वीकार नदी किया । कैः उत्तरा- भूमिका पृष्ठ २।




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