जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग 2 | Jain, Bodh Aur Geeta Ke Achardarshano Ka Tulnatmak Adhyyan Bhag - 2

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Jain, Bodh Aur Geeta Ke Achardarshano Ka Tulnatmak Adhyyan Bhag - 2 by सागरमल जैन - Sagarmal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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হি শি उस और जाती अवश्य है। दूसरे वह साहित्य जैनाचार दर्शन सम्बन्धी प्राचीन आगम साहित्य से कालिक साम्यता भी रखता है । अतः प्रस्तुत गवेषणा में उसे ही बौद्ध परम्पराके अध्ययन का मुख्य आधार बनाया है । यद्यपि विशुद्धिमग्ग जैसे स्वविर्वादों और बोधिचर्यावतार तथा लंकावतार जैसे महायानी ग्रन्थों का तुलना की दृष्टि से यथाप्रम्भव उपयोग किया गया है । प्रस्तुत गवेषणा में जिन महापुरुषों, विचारकों, लेखकों, गृरुजनों एवं मित्रों का सह- योग रहा है उत सबके प्रति आभार সহঘিল करना में अपना पुनोत कर्तव्य समझता हूँ। स्ंप्रथम मैं उन महापुरुषों के प्रति विनयवत्‌ हूँ जिन्होंने मानव जीवन को मूलभूत समस्याओं को गहराई से परखा और उनके निराकरण के लिए मानव को सार्ग-दर्धान प्रदान किया । कृष्ण, बुद्ध और महावीर एवं अनेकानेक ऋषि-भ्रहपियों के उपदेशों की यह पवित्र धरोहर, जिति उन्होंने अपनी प्रज्ञा एवं साधना के द्वारा प्राप्त कर भानव कल्याण के लिए जन-जन में प्रसारित किया था, आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक हैँ और हम उनके प्रति श्रद्धावनत्‌ हैं । लेकिन महापुरुषों के ये उपदेश, आज देववाणी संस्कृत, पालि एवं प्राकृत में जिस रूप सें हमें संकलित मिलते हैं, हम इनके संकलनकर्ताओं के प्रति आभारो हैं, जिनके परिश्रम के फलस्वरूप वह पवित्र थाती सुरक्षित रहकर आज हमें उपलब्ध हो सकी है 1 सम्प्रति युग के उन प्रवुद्ध विचारकों के प्रति भी आभार प्रकट करना आवश्यक है जिन्होने बुद्ट, महावीर ओौर कृष्ण के भन्तव्यों को युगीन सन्दर्भ में विस्तारपूर्वक चिवे- चित एवं विश्छेषित किया है। इस रूप में जैन दर्शन के मर्मज्ञ पं० सुखछालजी, उपाध्याय अमरमृनि जी, मृचि नथमलजी, ग्रो० दलसुखभाई माल्वणिया, बौद्ध दर्शन के अधिकारी विद्वान्‌ धर्मानन्‍द कौसम्बी एवं अन्य अनेक विद्वानों एवं लेखको का भी मैं आभारी हूँ जिनके साहित्य ने मेरे चिन्तन को दिशा पिर्देश दिया है । मैं जैन दर्शन पर शोध करने वाले डॉ० टाटिया, डॉ० पदृम राजे, डॉ० मोहन लाल मेहता, डॉ० करूघटगी एवं डो० ऊमल चन्द सोगानी एवं डॉ० दयानन्द भार्गव भादि उस सभी विद्वानों का भी आभरि हूँ जिनके शोध ग्रन्थों ने मुञ्चे न केवल विषय और शैली के समझने भे मार्गदर्शन दिया वरन्‌ जैन ग्रन्थो के अनेकं महत्त्वपूर्ण सन्दर्भो को विना भयात के मेरे लिए उपलब्ध भी कराया है । इसी प्रकार में अभिधानराजेन्द्रकोश जे कोश निर्माताओं और सूक्ति त्रिवेणी एवं महावीर वाणीः जैसे कु प्रामाणिक सुवित संग्राहकों के प्रति भी माभार प्रकट करता हूँ, जिनके कारण अनेक सन्दर्भ अल्प प्रयास में हो उपलब्ध हो सके हैं । इन सबके अतिरिक्त मैं विभिल्‍त पत्र-पत्रिकाओं के उन




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