लब्धिसार क्षपणासार | Labadhisaar Shpanasaar

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Book Image : लब्धिसार क्षपणासार   - Labadhisaar Shpanasaar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) प्रव्य संगह में भी कहा है-- शुद्ध निश्वयनय से जीव के बन्ध ही नही है तथा बन्धपुर्वेक होने से मोक्ष भी नही है ।* जब निश्चयतय मे बच्ध व मोक्ष ही नही तो मोक्षमार्ग कंसे सम्भव है श्र्थात्‌ निश्चयनय से मोक्षमाग भी नही है। बन्धपूर्वक मोक्ष और मोक्षमार्ग के उपदेश के लिए ही षट्खण्डागम और कषायपाहुड ग्रस्यो को रचना हुई। यद्यपि ये दोनो ग्रन्थ करणानुयोग के नाम से प्रसिद्ध है, क्योकि इनमे करण अर्थात्‌ झात्म-परिणशामों को तरतमता का सुक्ष्म-दृष्टि से कथन पाया जाता है तथापि इन दोनो ग्रन्थों मे आत््म-विषयक कथन होने से वास्तव मे ये भ्रध्यात्म ग्रन्थ हैं ।९ प्रवंबद्ध क्मंदिय से जीव के कषायभाव होते हैं और इत कषाय भावो से जीव के कर्मबन्ध होता है । वाहच द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव अनुकूल मिलने पर द्रव्य कर्म उदय मे (स्वमुख से) आकर प्रपना फल देता है ।१ यदि बाहच द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव अनुकूल नही मिलता तो कर्म (स्वमुख से) उदय मे न भ्राकर अपना फल नही देता । जिन बाहच द्रव्यादि के मिलने पर कषायोदय हो जावे ऐसे द्रव्य श्रादि के सयोग से श्रपने को पृथक रखे यही हमारा पुरुषार्थ हो सकता है। जेसे- अणुन्नत ग्रहण द्वारा देश संयम हो जाने पर श्रप्रत्याख्यात क्रोष झादि कषाय तथा श्रानादेय, दुर्भग, प्रयश कीति शञ्रादि कर्मोदिय रुक जाता है। चरणातुयोग की पद्धति के भ्रनुसार हम स्वयं को उन द्रव्प-क्षेत्रकाल भ्रौर भाव से बचा सकते है जिनके मिलने पर कषायादि उदय मे झाते हैं । प्रत्तुत प्रन्थ का तामकरण -- प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पूवं पाच लन्धिया होती ह तथा श्रनस्तानुबन्धी की विसयोजना, द्िततीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्व, उपष्म चारित्वं क्षायिक चारित्र से पूवे तीनो करणलन्धि हती है । देश सयम भ्रौर सकलसयम से पूवे श्रधःकरण और श्रपर्वकरण ये दो करणुलब्धिया होती है । इन लब्धियो का कथन प्रस्तुत ग्रन्थ मे विस्तार पूर्वक होने से इस ग्रन्थ का लव्धिसार गौण्य पद नाम है तथा चारित्र मोह को क्षपणा का कथन होने से श्रथवा आठो कर्मो की क्षपणा का कथन होने से दुसरे ग्रन्थ का क्षपणासाद सार्थक नाम है। इस प्रकार लब्धिसार-क्षपणासार यह नामकरण विषय विवेचन की प्रधानता से किया गया है ॥ ग्रन्थकर्ता-- लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ के कर्ता श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तवक्रवर्ती है। श्रापने पृष्पदन्त- भूतवलि भ्राचार्य द्वारा विरचित घट्खडागम सूत्रों का गम्भीर मनन पूर्वक पारायण किया था। इसी कारण झापको सिद्धान्त चक्रवर्ती उपाधि प्राप्त थी। आपने स्वयं भी गो क. कोर गाथा ३६७ मे सूचित किया है कि--जिस प्रकार भरतक्षेत्र के छह खडो को चक्रवर्ती निविष्ततया जीतता है उसी प्रकार प्रज्ञा रूपी चक्र के द्वारा मेरे द्वारा भी छह खड (प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ--षट्‌खण्डागम) निविष्न- तया साधित किये गये हैं श्रथात्‌ जीवस्थान, खुद्दाबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड भ्रीर वन्धश्च शुद्धनिश्वयनवेद नाह्ति तथा बन्धपुर्वेकमोक्षो5पि । गा. १७ को टोका । 'एदं खड़गंथमज्भप्पविसय' पयदाए श्रज्कप्पविज्जाएं ध पु १५३ प. १३६९॥ कमेरां जातावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकालभवभाव प्रत्ययफलानुभवर् । सवर्थिसिद्धि ६/३६॥ जह्‌ चक्केरष य चक्को चुक्खडं सहिय श्राविग्पेरा । तह महचक्फेण मया कक्खंड साहियं सम्म ॥ ८ ८4 „6 পি




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