उपनिषद्विज्ञान भाष्यभूमिका द्वितीयखंड | Upnishadwigyan Bhashyabhoomika Dwitiyakhand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8 পরার জা: ऐसा समभने में अग्निम्न ख॑ प्रथमो देवतानाम्नत्तमो विष्णु रासीत! इत्यादि मन्त्र ही प्रमाण है । अर्थात्‌ मन्त्र में अग्नि को प्रथम”, एवं विष्णु को उत्तम” कहा है। ऋतः यहां के अवम- परम-शब्दों को प्रथम-उत्तम-परक लगा लेना चाहिए । अथवा “बै” शब्द उपपत्ति का द्योतक है । और उपपत्ति की योजना ( समन्वय ) यों कर लेनी चाहिए कि, यद्यपि द्देवः शब्द सामा- , न्याथंक बनता हुआ सम्पूर्ण देवताओं का वाचक है । तथापि यहाँ प्रकरणबल से “अर्निष्टो मः नामक यज्ञ के अङ्गं से सम्बन्ध रखने बाले शस्त्रकर्म्मो में प्रतीयमाना प्रधान देवता ही विवक्षित है। शस्त्र १२ हैं। इन में पहिला आज्यशस्त्र' है, जिसके सम्बन्ध में 'भूरग्निज्यों तिरग्निः” यह मन्त्र विहित है। अग्निमारुत' नामक शस्त्र अन्तिम (१२ बा ) शस्त्र है, जिसके सम्बन्ध में “विष्णोनु कम” यह सन्तर विदित है। इसप्रकार अग्निष्टोमसंस्था में द्वादश शस्त्रपाठापेक्षया अग्ति का प्रथमत्त्व, एवं विष्णु का उत्तमत्त्व प्रमाणित हो रहा है । (एवं यही पूर्वबचन के अवस-परम शब्दों की उपपत्ति है ) | अथवा सभो संस्थाओं में उक्त न्यायानुसार अग्निं का प्राथम्य, एनं विष्णु का उत्तमत्त्व स्थापित है। ( यह भी उपपत्ति मानी जा सकती है ) । अथवा- प्रथमा दीक्षणीयेष्टि में अग्नि का यजन होता है, एवं अन्त की उपसदवसानीयेष्टि के स्थान में वाजसेनयी लोग बेष्णवी पूर्णाहुति करते हैं | इसलिए मी अग्ति-बिष्णु को अवम-परम-माना जा सकता है । सभी उपपत्तियों का सार ? यही है कि, स्तोतव्य, तथा यपष्ट-य देवताओं की अपेक्षा अग्नि का प्राथम्य, एव बिध्णु का उत्तमत्त्व ही युक्तियुक्त है अतर सम्पूर्ण देवताओं के दोनों ओर रक्तक की भाँति अग्नि-विष्यु हीं प्रशस्त मान लिए गए हैं?” । --देखिए ऐ० ब्रा* १।१।१। का सायशसभाष्य किमपि प्रास्ताविकम्‌ का ০০ श (~ शास्त्रवादी(शास्त्राभिनिविष्ट) केबल श्रद्धालु प्राच्य व्याख्याता कहते हैं-« धक अथक स्थलों में अग्नि-विष्णु को प्रथम-उत्तम कहा है, इसलिए अग्नि को देवताओं में अवम, तथा विष्णु को परम मान लिया हे!” | एवं शुष्क-बुद्धिवादी प्रतोच्य व्याख्याता कहते हें-“आरम्भ म अग्निपूजन भधान था, कालान्तर मं विष्ुपूजन प्रधान वन गथा । उसी युग मे ऐसी मान्यता बन गई कि, अग्नि का गोण स्थान हे, एवं विष्णु का प्रमुख स्थान हे! | क्या उक्त दोनों दृश्ठिकाणां से हम किसी ताक टृष्ठिकोणख का अनुगमन कर सकने हैं ?। नेति हो वाच | इसी लिए तो हमें यह निवेदन करना पड़ा कि, तत्त्ववाद की बिलुप्नि ने हीं इसप्रकार वेदार्थ के सम्बन्ध में विविध आन्तियों का सज्जेन कर डाला है । पारिभाषिक तत्त्वबेध॒ का अभाव, एवं अपने कल्पित सिद्धान्तों के माध्यम से वेदाक्षरों के समन्वय की ११




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