धर्मविलास | Dharmvilas

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Dharmvilas by नथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९) पंचपरमेशेकी नमस्कार, छणव। रथम नमू अरत, जाहि इदादिक ध्यावत । বু सिद्ध महंत, जासु समिरत सुख पावत ॥ आचारज वदामि, सकर श्रुत ज्ञान प्रकासत । वदत हा उवश्नाय, जास वदत अथ मासत ॥ जे साधु सकल नरढोकमें, नमत तास संकट हरन। यह परम मंत्र नित रति जपो, विधन उठटि मंगठ करन ॥ सवुद्धिक्तनिनलुति, करता । राग रंगति नहीं दोप संगति नहीं, मोह ब्यापे न विजकछा जागी। धातिया खे गवौ जान प्रगट भयौ, यकौ जानि प्रदं लागी ॥ सकर यगुण गये, सक गुणनिधि भये सकर तन जस सुकुल रीति पागी । कृपा क्रि कंतकी मोख पद दीजिये, कहत हे सुबुधि निनाय छागी ॥ २२॥ কতো হু! कहत है স্তনুতি জিললাঘ নিলবা সুদী, कंत तो मूह समुझ न क्यों ही धोर संसारे देत जे विषय द तिन्हें भोगत ই গুন स्यां ही ॥ जाइगो नके तव विषय फल जानसी, तहां पिछतात सिर धुन या ही । ब १ शनत पांच, दर्शनावरण नव, मोहनीय अदरदस, भंतराय पाम्‌}




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