प्रपद्यवाद | Prapdhvad
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
136
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)219:
हो जाने का कि उसमे जगत् भर की अनुमूतियां सिमट भए मौर फिर वाद में
स्वानुभूति की अभिव्यक्ति का इस रूप मे होना ফি कविना र प्रयुक्त प्रत्येक शब्द
और भाव सम्पूर्ण जगत् के हो जाएँ ? प्रश्न का समाधान पाने के लिए हम वर्तमान
काल की तीन अतिपुख्य विचारधाराओ को देखना चाहेगे। वे है---(क) समाज-
शास्त्रीय सपेक्षवाद, (ख) विकासवाद और (ग) इतिहास की सनातनताबादी
व्याख्या । इनके माध्यम मे व्यकिति, समाज और परिस्थिति की वास्तविक स्थिति
का ज्ञान सभव हो सकेगा !
सु निमित्त प्रथम विपयकेरूप मे समाजशास्त्रौय विकासर्वाद (5००1०108-
16] गभीणंभष) । यह वाद सत्य की सार्वजनीनता और सावंकालिकता में
विश्वाम नही करता है। इसकी व्याख्या हर्षनारायण निम्न शब्दों में करते हैं: यह
एक मानी हुई बात है कि जीवन उतना और वेसा ही नही है, जितना और जैसा
समाज विशेष अथवा युग विशेष द्वारा जाना गया है। प्रत्येक समाज अथवा युग
उसके पक्ष विशेष का ही साक्षात्कार कर पाता है; यद्यपि प्राय समाज अथवा युग
अपने को पूर्ण जीवन-दृष्टि-सम्पन्न सिद्ध करने का दावा करते पाये जाते है। समाज
दर्शन इत विभिन्न जीवन दृष्टियों को सापेक्ष सत्य सिद्ध करता है। उसके अनुसार
दर्शन और धर्म, साहित्य और कला, कानून और नीति-नियम, राजनीति और
अथेनीति प्रभूति विविध सामाजिक, सास्कृतिक सस्थाए एव प्रवृत्तियां, वित्य सावें-
जनीन और सावंकालिक न होकर समाजानुसारी अथवा युगानुसारी होती हैं। वे
भिन्त समाजों अथवा युगी में भिन्न हो जाने को धाध्य हैं। किन््ही दो समोजों
अथवा युगो में ये सस्थाए और प्रवृत्तियां एक-सी नहीं होती। (हिन्दी साहित्य
कौ : समाजशास्त्रीय सापेक्षदांद)
इसके उपरान्त द्वितीय विषय के रूप मे विकासवाद के अध्ययन की स्थिति
मती है । यह् सिद्धन्त समाज भौर जगत् के स्थिर होने के प्रति अविश्वास प्रकट
करता है तथा सृष्टि को अनवरत गतिशीलता तया प्रक्रियान्तगेत विकसित होती
जा रही व्यवस्था को स्वीकार करता है। इस सिद्धान्त से प्रभावित होकर मनुष्य
को यह विचार त्याग देता पडा है कि समाज और जगत् स्थिर हैं। परिवतेन,
विकास, परिवद्धेन भोर उन्नति उसके जीवन-सूत्र बन गण ह । मानवता का दृष्टि
कोण लोकपरक और ऐहिक हो गया है ५ मनुष्य अद अपने को सुप्टि का केन्द्र और
सर्वोच्च शिखर न मानकर इतर प्राणियों की भाति एक पशुजाति मानने लगा है।
मनुष्य की चेतना भौर उसके द्वारा स्वीकृत चिरन्तत मूल्य अब उतने असदिग्ध
नहीं रह गए हैं। विकासवाद के आधार पर नथी सतिक्ता मौर नये मूल्यों का
प्रस्फुटन हुआ है । नैतिकता किसी सत्य अथवा ऋत, किसी ईश्वर अथवा अवतार
की आज्ञा नहीं रहकर मनुष्य और जीवन मे ही आधारित सिद्ध हुई है। स्वयं धर्म
विकाम की प्रक्रिया से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर ने यह सृष्दि ऐसी ही किसी दिन नही
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