जैन सिद्धान्त दर्पण | Jain - Siddhant - Darpan

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Jain - Siddhant - Darpan by श्री गोपालदास - Shree Gopal Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थम अधिकार -। ~स देशोंमें रहे; ऐसा न होनेसे चंह लक्षण न कहलाकर. संदोप * लक्षण यान्ती क्षणाभास कहरांता है, जिससे कि बह, अन्यव्या- वृत्ति करते हुए अपने रक्ष्यका निय्रासक नहीं हो सकता। इस 'छक्षणांभासके तीन भेद हैं-- _ अव्याप्त १ अतिव्याप्त २ असम्भवी ३। अव्याप्त छक्षणाभास उसे कहते हैं जो लक्ष्य ( जिसका कि छक्षण किया जाय ) के एंक-देशमें रहे, .जसे जीव, सामान्यका छक्षण रागह्वंप | यह “रागद्वेष? छक्षण सर्व जीवों ( संसारी व सिद्धों ) में व रहकर केवट उसके. एकदेश मृत जो संसारी जीव उन्टीमे रहता दै 'सिद्धोंमें नहीं रहता, इस लिए ऐसा छक्षण अव्याप्त (ढक्ष्यसात्रे न व्यप्रोऽव्याप्तः अथवा अ-एकदेले व्याप्त: अव्याप्त: अथीत्‌ लक्ष्यसात्र यानी . रक्ष्यके सर्वदेशोंमें जो नहीं व्याप-रहे उसे अव्याप्त कटति हैँ । अथवा अ सानि एकदेश यानी लक्ष्यके एक देशमें जो व्यापे-रहै उसे अव्याप्त कहते हैं) छक्षणामास फहलाता है। जो रक्ष्यमें रहकर अन्य अछ्य्य (लक्ष्यके सिवाय अन्य पदाथ, जिनका कि वक्षण नदीं क्रिया गया) में भी रहे उसे अंतिव्यात्र .(अति-अतिक्रम्य क्यमिति शेपः व्याप्रोतीव्यतिव्याप्न अर्थात्‌ लक्ष्यको छोडकर अन्य -अलक्ष्यमें व्याप-रहे उसे अति व्याप्त कहते हैं) लक्षणाभास कहते हैं। . जैसे शुद्ध जीवंका लक्षण अमृततेत्व-हूप, रस, गंब, स्पर्श रहित होना | बह लछक्षण यद्यपि लत्ष्यमृत জীন হেনা ই; परन्तु लक्ष्यके सिवाय अन्य आकाशादिक অভদ্র লী হা ই इसलिए ऐसा लक्षण अतिव्याप्त लक्षणाभास कहलाता है। जिसकी लक्ष्यमें सम्भावना ही न हो उसे असम्भवी (छल््ये न सम्भवती- . -सयसम्भवी अर्थात्‌ जो. र्क्ष्यमें नहीं सम्भवे, उसे असम्भवी रश्रणाभास कते हे ) £?




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