जयपुर कहानिया तत्वचर्चा | Jayapur Khaaniyaa Tatvacharchaa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रकाशकोय वक्तव्य ११ आचायंकल्प पं० श्रो टोडरमलछजी तो यहाँक़ी विभूति थे ही। श्री णाह पं० दौपचन्दजौ काशलोवान, श्र पं० गुमानी रामजी, श्री पं० जयचन्दजों छात्रा, श्री पं० मदासुखजी और श्री पं० दौलतरामजों आदि गण्य- मान्य ममथं विद्वान भो जयपुरकी हो देन है। इन सब दिद्वानोंने अपने जोवनकालमें जो साहित्यको सृष्टि को है उमसे पूरा जैन समाज अनुप्राणित हुआ है। इसलिए इस नगरका वातावरण तत्त्वचर्चाकें लिए उपयुक्त रहा है । इसे तो विधिकी बिडम्बना हो कहनो चाहिए कि दिगम्बर परम्परामें ५ज्य श्रो कानजों स्वामोके दोक्षित होनेके बाद समाजमें मतभेंदका प्रावल्य दृष्टिगोंचर होने छगा । पृज्य श्री कानजो स्वामोका त्याग अपूर्व है । दिगिम्बर परम्परा हो मोक्षमागके अनुरूप सनातन समीचोन परम्परा हं इसको व्यापक घोंपणा इस कालमें यद्दि किसके त्यागने की हू तो वे एकमात्र पूज्य श्री कान्जी स्वामी ही ই | उनके व्यक्तित्व, त्याग, तरिद्तता और वक्‍तृत्व आदि गुणोंके विपयमे जितना भी लिखा जाय थोड़ा है । मोक्षमागंके अनुरूप अध्यात्मका आत्मानुमवी ऐसा अपूर्त वक्ता इस कालमें हम सबके लिए सुलभ है इसे में टम सबका महान्‌ पृष्योदव ही मानता हूँ। उनके पत्रित्र सानिष्यकों छाया चिर कालतक हम सबके ऊपर बना रहे यह मेरी मंगल कामना है । यों तो स्वपर के कल्याणके लिए जिन मंगल कार्योंका प्रारम्म किया जाता है उनके मध्य कुछ न कुछ बाघाएं उपस्थित हुआ हो करती हैं यह संसारका नियम है। पर उन बाघाओंकों बाधा न गिनकर जो महान्‌ पुरुष होते हैं वे अपने उदिष्ट कार्योमं हो लगे रहते हैं यहो उनके जीवन की सर्वोपरि विशेषता होती है। इस कसोटोपर जब हम पृज्य श्रों कानजो स्व्रामोकों कमकर देखते-परखते हैं तो वे महानूसे महानृवर ही सिद्ध होते हैं । उनके इस लोकोत्तर गुणका पूरा समाज अनुवर्ती बने यह मेरी अन्तः:करणको पवित्र भावना हैं । विश्वास है कि पूरा समाज कालान्तरमें उनकी इस महत्ताको अनुभव करेगा । जैसा कि में पूवर्म निर्देश कर आया हूँ जयपुर सदासे तत्त्वचर्चाका केन्द्र रहा हैं। जब इस कालमें अध्यात्मको लेकर विद्वानोंमें मतभेद बढ़ने लगा और इसको जानकारी पूज्य श्रो १०८ आचायं शिवसागरजों हाराज और उनके অক্ষ हुई तब ( उनके निकटवर्तो साधर्मी भाइयोंस ज्ञात हुआ है) पज्य श्री आचार महाराजने अपने संघमें यह भावना व्यक्त की कि यदि दोनों ओरके सभो प्रमुख विद्वान्‌ एक स्थानपर बैठकर तत्त्वचर्चा द्वारा आपसी मतभेदकों दूर कर ले ता सर्वोत्तन हो। उनके संघमें श्रो ब्र० सेठ हीरालालजों पाटनो (निवाई) और श्री ब्र० लाडमलजी जयपुर शान्तपरिणामों और सेवाभावी महानुभाव हैं। इन्होंने पूज्य थ्रों महाराजकी सदृभावनाकों जानकर दानों ओरके विद्वानोंका एक सम्मेलन बुलानेका संकल्प किया । साथ ही इस सम्मेलनके करनेमे जो अर्थव्यय होगा उसका उत्तरदायित्व श्रो ब्र० सेठ हो रालालजो (निवाई) ने लिया । यह सम्मेलन २०-९-१६६३ से उक्त दोनों ब्रह्मचारियोंके आमन्त्रणपर बुलाया गया था जिसको सानन्द समाप्ति १-१०-१९६३ के दिन हुई थो | प्रसन्नता हैं. कि इसे सभो विद्वानोंने साभार स्वोकार कर लिया और यथासम्मव अधिकतर प्रमु विद्वान्‌ प्रसन्नता पूर्वक सम्मेलनमें सम्मिलित भी हुए। यद्यपि यह सम्मेलन २० ता० से प्रारम्भ होना था, परन्तु प्रथम दिन होनेके कारण उम्रका प्रारम्भ २१ ता० से हो सका जो १-१०-१६६३ तक निर्बाधगतिस चलता रहा । सम्मेलन की प्री कार्यवाही लिखितरूपमं होती थी, दससे किसको किसी प्रकार शिकायत करनक्रा मवसर हो नहों आया। इस सम्मेलनको समस्त कार्यवाही पृज्य श्री १०८ आचाय शिवपागरजो महाराज गौर उनके संघके सानिध्यमें होनके कारण बहो शान्ति बनो रही । इसका विशेष स्पष्टीकरण सम्पादकोय वक्‍तब्यमें पढ़नेकों मिलेगा ।




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