मेरी जीवन - यात्रा | Meri Jeevan Yatra

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आचार्य विनोबा भावे - Acharya Vinoba Bhave

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जानकी देवी बजाज - Janaki devi Bajaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुदु म्य-पाल १६ सोख थी भोर वह जबतक रहे तबतक धन-धास्य से भरपूर रहे। उनका यह स्वमाव-सा हो गया ঘা कि योड़ा-वहुत मुनाफा मिलता तभी वह মাল बेच देते, ज्यादा सोम में न पड़ते । उनका भफीम का धन्धा था। सेतों से अफीम के रस के पड़े-के-घड़े भरकर पाते । कुछ दिनों रसे रहने के वाद उस रस को बड़ी-बड़ी परातों में मथा जाता और फिर लड्डू जैसे गोले वनाए जाते । इसे भफीम की गोटियाँ कहते थे । कोठों में लाक्षों की श्रफीम भरी रहती थी। कहावत है कि लोभ गला कटता है। पिताजी के बाद भर के लोगों की प्रायः घाटा ही उठाना पड़ा, पयोकि वे उनकी नीति के अनुसार नही चले । थोड़े मफे में सन्‍्तोष मानवेवाले को जोसम कम उठानी पड़ती है और वह लाभ में ही रहता है। उनके जीवन में कुटुम्ब की स्थिति सभी दृष्टि से भच्छी रही | विवाह के बाद जव मै ससुराल जाने लगौ तथ पिताजी ने कहा था-- “बेदी, तू पराये घर जा रही है । वहां अच्छी तरह रहना। ज्यादा न बोलता । कोई चार बार कहे तो एक बार बोलना 1 जैसा उनका जीवन भव्य रहा वैसी हो उनकी मृद्ु भी | जिस दिन उनका स्वगेवास हुप्रा, उस दिन सुबह वह मदिर गये; ग्यारह बजे तक चिट्ठियां लिखते रहे । फिर नहाकर धोती पहन रहे थे कि उनको चक्कर भा गया। कमरे में भाये भर लेट गए । लोग इकट्ठे हो गए । डाक्टरों फो बुलाया गया । इन्दौर से भो डाबटर बुलाये गए, पर कुछ भौ फायदा न हुआ। शाम को सात बजे उनका देहान्त हुआ। कहते हैं, उनका प्राण ब्रह्माण्ड में से निकला । सिर ऊपर से फट गया था और खून गिरा। ऐसी मृत्यु किसी थोग्ी या महापुरुष की होती हैं, ऐसा कहा जाता है । उस समय मेरी भाग दसनयारह साल की थी




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