अष्टाचार्य गौरव गंगा | Aasthachariya Gaurav Ganga

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- साधुमार्ग और उसको परपरा दुग्ध के साय घवतता कच्सेचलौ श्रा रही है ? भ्रग्नि के साय उष्णता फा सम्बन्ध कब से है ? इन विपयो की प्रादुभू ति के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता । जब से दुग्ध है, तभी से उसकी घवलता है । जब से अग्नि है तभी उसके साथ उप्णता का सम्बन्ध बना हुआ्ा है । ठीक इसी प्रकार जब से भू, तोय, अनल, अनिल आदि प्राणी समूह एव जड तत्त्व चले आ रहे हैं, तभी से घर्म एव सस्कृति भी चली आ रही है । पृथ्वी आदि मूलभूत तत्त्व, श्रनादि काल से चले भा रहे हैं और अनन्तकाल तक चलते रहेगे । श्राविभवि-तिरोभाव हो सकता, स्वंथा प्रणाश नही । घमं एव सस्कृति का स्वरूप भी यही ই | धर्म भी अनादि काल से चला आरा रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा । धर्म का भी क्षेतर-काल की इप्टि से ह्वास-उत्थान हो सकता है, सवंथा अभाव नही । इस दृष्टिकोण से घर्म की अनादिता को ऐतिहासिक तटवंधो से श्रनुबधित नही किया जा सकता । ऐतिहासिक दृष्टि, घर्मं की अनादि शाश्वत सत्ता को स्पष्ट नही कर सकती । तथापि सामान्य जन-मानस, धर्म की प्राचीनता अर्वाचीनता के लिये ऐतिहासिक तथ्यो को, अधिक महत्व प्रदान करता है । इसी दृष्टि से साधुमार्ग के ऐतिहासिक तथ्यो पर कुछ बतला देना उपयोगी होगा । जैन दषेन मे प्रवहमानकाल कौ अनवरत परिक्रमा का उत्स्पिणी-ग्रवसर्पिणी काल, षट्‌ आरक के रूप मे विभाजित किया है । प्रथम तीन काल खण्डो के व्यत्तीत होने पर भोगभूमिज व्यवस्था के वाद कर्म भूमिज जीवन निर्वाह की प्रणाली के प्रारभ होने पर तीर्थकर महाप्रभु ऋषभदेव ने जनमानस का ध्यान, साधुमार्ग की परपरा की ओर भ्राकपित क्या! अ्रत इस काल चक्र की अपेक्षा ऋषभदेव भगवान्‌ साधुमार्ग की परपरा के उदगाता कहे जाते हैं | तदनन्तर उत्त खवर्त्ती प्रभु अजिननाथ से प्रभु महावीर तक के सभी तीर्थंकरों ने अपने-अपने शासनकाल मे साधुमार्ग का प्रतिपादन किया । ্ नमस्कार महामत्र द्वारा यह, अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है । नमस्कार महामत्र समग्र जेन समाज को एक स्वर से मान्य है । इसे सपूर्णो आगमों का सार कहा जाता है। इससे भी प्रचलित जैन साधुमार्ग के रूप मे ही फलित होता है ।




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