चितन की मनो भूमि | Chintan Ki Mano Bhumi

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Chintan Ki Mano Bhumi by उपाध्याय अमर मुनि - Upadhyay Amar Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीय वक्तव्य खत एव तपस्वी का जीवन सावना का जीवनं होता है । कहा भी है--“तपसा धारयन्ति सताम्‌ 1 सत लोग अपने साघनाका दीप जलाकर, उस तप्दीप कौ घवल ज्योत्ति मे जीवन एव जगत्‌ की गहूरी अनुभूति का दशंन विष्व को करते हँ गौर यही, सत- जीवन का, तपस्वी-जोवन का आदशंभी है । इस विराट्‌ विष्व कौ विभूति-मानव-के जितने मस्तिष्क हैं, विचारने को णितनी दृष्टि-विधा है, विश्व के विम्ब का उतने ही दृष्टि के कोण से दर्शन किया जाता है । इस अर्थ मे यह कदापि संभव नही कि किसी एक की दृष्टि को सर्वागपूर्ण कहा जाए। यह विश्व तो एक महासागर है, जिसमे साधक अपनी गहन साधना के गोते लगाता रहता है । जो जितना कुशल गोताखोर--साधक--होता है, वह उतना ही अधिके मोती निकाल पाता है) विद्व-दश्षंन का इतिहास दखका पुष्ट प्रमाणहै कि समय फे परख पर चठकर कितने ही दाल्ंनिको ने हस विश्व कौ विराटता का अवलोकन, मनन एव चितन किया तथा अत मे, मपनी अनुभूति के उद्गारो को दर्शन के पृष्ठो पर अंकित कर चले गए। चाहे वे पाष्चात्य महान्‌ दार्शनिक--अरस्त्र हो, प्लेटो हो, सुकरात हो, जरभ्रस्ट हो, हान्स, लांक, रसो, वाल्तेयर, सिसमोडी, म॑कियावेली, मिल, मकसं, जान लाँ पाल सात्र हो अथवा प्राच्य महान्‌ दा्ंनिक--मनु, व्यास, कपिल, कणाद, शकर, घ्व, निम्बाकं, महावीर, बुद्ध, दादू, कबीर, रेदास, नामदेव, ज्ञानेश्वर, भरविन्द, रामकृष्णपरमह्‌ स, विवेकानन्द, महात्मा गाँधी आदि हो--सवो ने जीव्रन और जगत्‌ का भिन्न-भिश्च रष्टिकोण से अवलोकन कियाहैं गौर सासारिक समस्यामो का चितनपरक अपना भिन्न-भिन्न समाधान प्रस्तुत किया है । कहने का तात्पर्य यह है कि इस विद्ञाल विश्व का न तो किसी ने अथ से ड्ति तक सर्वागपूर्ण सवंदिश अवलोकन ही किया है, न ही सर्वागपूर्ण स्वंमान्य मन्तव्य ही प्रस्तुत किया है । आरम्भ से छेकर मध्ययुगतक दर्शेन का दृष्टिक्षेत्र कुछ मौर मायाम का घाः भौर आज, जबकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे विज्ञान सर पर चढकर वोल रहा है, दर्शन की दृष्टिविधा भी उससे अछूती न रह सकी है । आज के आधुनिक दाशंनिको के चितन को यदि प्राचीन दि निर्को फे चितन कफे सामने रखे, तो युगीन परिस्थितियों के कारण दोनों मे पर्याप्त श्रंतर लक्षित होगा । आज का प्रत्येक दाशंनिक, जैसा कि मेरा निजी दृष्टिकोण है, अणुवाद पर आधृत है | सवो के चितन फो धूरी जर्णु है। जिस प्रकार अणु पर विज्ञान का सूत्र निर्मित होता है, विज्ञान का विकास-पथ भ्रद्वस्त होता है, उसी प्रकार, दर्शन भी अणु पर ही चिंतन करता है । अणु को ही इस विराट विदव का निर्मायक तत्त्व, यात्मा एवं न्त मे परमात्मा तक स्वीकारा जा रहा है । युगसापेक्ष हष्टि से वात भी सही ही है। आज का धर्म और दर्शन मध्ययुगीन यितण्णवादी मनोभूमि को लेकर अग्नतर नहों हो सकता । तव, घर्म. সাত




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