सीता की अग्नि - परीक्षा | Sita Ki Agni Pariksha

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कालीप्रसन्न घोष - Kaliprasanna Ghosh

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देवबली सिंह - Devbali Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम परिच्छेद शहः नाट्य चशिष्ठ देवी अरून्घती साल और सखियोंका अजुरोध- उपरोधघ है और दूसरी ओर जानकीका प्रेममय प्राण है एक ओर असंख्यों दाख दॉसियॉच्चा विलाप ओर असंख्यों अचुरक्त प्रजाका दाददाकार और आारजू-मिनती है आर दूसरी ओर जानकीका प्रेममय प्राण है एक ओर सर्पो नररसांस-भोजी कंकरों भर कांटोंसे भरे हुए दुर्गेम वनकी विभीपिकए ओर चूक्षोंके नीचे घास-फूसकी शय्या और चन-जीवनका भयडूर गौर रूखा चित्र है और दूसरी ओर जानकीका प्रेममय प्राण है किन्तु प्रथ्वरीके उस अश्ुत-पूर्व हृद्यकी भयंकर परीक्षामें उन्होंने संसारके सभी चेमवॉंको तिरस्छत और अपमानित कर ठुकरा दिया । उनके प्रेममय प्राणने सेकड़ों चन्द्रोंदी भांति उज्ज्वल शीतल कान्ति लिये हुए उद्दासित दोकर पृथ्वीके असंख्यों शत्री-पुरुषॉंको प्रेमका अतुछ्नीय सौन्द्य्ये दिखला दिया । जब माता कौशब्या आदि सभी माननीय गुरूजन ज्ञानकी- जीको वन जानेके संकरपसे रोकनेकी चेष्ा करके हार गये तब स्वयं श्रीरामचन्द्रजीने उनके कमलवत्‌ कोमल दार्थोको अपने हा्ोंमें लेकर उन्हे बहुत कुछ सय दिखलाया . भावी खुख-सस्पद्का चित्र खींचा और भ्रेमकों चातें कहकर उस समय एव ओर भारतकी _ अयोध्याका अतुढनीय वैभव और सोग-विठासका प्रचर भाण्डार है और दूसरी शोर जानकीजीका प्रेममय प्राण है एक ओर छुलगुरू-




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