दृष्टान्त - सागर | Drishtant Sagar

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Drishtant Sagar by हनुमान प्रसादजी शर्मा - Hanuman Prasad Ji Sharma

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He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम-भाग । कह ना नितान्त सत्य हे कि ईर्वर जो कुछ करता है अच्छा ही करता है, क्योंकि जब हमने वन से आपको निकाल दिया तो हम आखेट खेठते खेठते एक राज्य में पहुंचे । वहाँ के राजा को बलिप्रदान के खछिए एक मनुष्य की आवध्य्यकता थी. इससे उसके दूत मुझे पकड़ ले गये । पर मेरी कटी होने से वहां के पण्डितों ने मुझे अद्ड भक जान छोड़ दिया । मेरी अंगुली कटने से तो ने अच्छा यह किया कि मेरे बचे, पर आपको जो मेंचे निकाल दिया और इतने दिन तक नोकरी से पृथक किया तो आपके दिए ईच्चरने कया अच्छा किया ?” मन्त्री ने कहा--'*'महाराज़: यदि आप मुझे न निकाल देते और मैं आपके साथ रहता तो आप तो चहां अड्ड सड होने के कारण बढलिप्रदान से बच आये, पर में अड् भट्ट न होने से बलिप्रदान से कभी न बचता | मत ५-ेश्वर हमारा सुख देख न सका | '. पक सिपाहीराम २० वष नौकरी करके घर आरहे थे । . घर के लिए एक कच्चे रंग की अपनी स्त्री के लिए और .... कच्चे ही रंग के खिलौने अपने लड़की के लिए और कुछ बताशे शीला रहे थे । पर माग में वर्षा होने ठगी, इससे खिपाहीराम की ुनरी और खिलौनों का रंग छूट २ कर बहने बगा और बताशे सब पानी में घुल गये । यह दशा देख खिपाहीराम ने कहा -- “ससुरो अब हीं सरग करिये की रहे । हाय ! २० वर्ष के बादतों पक कच्ची चुनरी, खिलोने और कुछ बतादे बच्चों को लाये वह भी परमेदवरसे देखा न गया ।,; थोड़ेही दूर दे चढ़े थे कि क्या देखते हैं कि एक नाले में दो डाकू बेढे हैं और वे इन पर बंदूक




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