कविता - कौमुद्री | Kavita - Koumudi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) चमत्कार होता हैं । उसकी दृष्टि साधारण लोगो की दृष्टि से मिल होती: हैं। उसका कथन निराले ढग का होता है। ससार की तुच्छ-से-तुच्छे बातो में भी वह सौन्दर्य ढँढ निकालता हैँ । गढो में बरसात का पानी जमा होकर जब सूख जाता है तब उसमे कीचड शेष रह जाती है । जव कीचड का पानी भी सूख जाता है तब उसमे दरारे पड जाती है । यह ससार की ऐसी साधारण-सी घटना है कि गढे के पास से आने-जाने वाले लोग कभी इस घटना पर ध्यान भी नही देते । किन्तु कवि की दृष्टि से वह कहाँ छूठ सकता है ? तुलसीदास ने कीचड ऐसे तुच्छ पदार्थ को और उस पर बीती हुई प्रकृति की एक श्रत्यन्त साधारण घढना को सौन्दर्य से चमत्कृत कर दिया । वे कहते हे--- हृदय न विदरेउ पक जिमि, बिछुरत प्रीतम नीर । जानत हौ मोहि दीन्ह विधि, यह जातना-सरीर ॥ अर्थात्‌, प्रियतम जल के बिछडते ही कीचड का हृदय फट गया, किन्तु मेरा नही फठा। इससे जान पडता हैँ कि विधाता ने मृझे यातना भोगने के लिए ही यह शरीर दिया है । নীল के मन की বলা कवि के सिवा सावारण जब कैसे समझ सकते हे ? ससार मे कौन मनुष्य नही रोया ? मनुष्यु-जीवन मे रोना सब से पहला काम हैँ । रोने के साथ आँखों से आँसुओं की धारा बहती है। शरास किसने नही देखा ? पर कवि की दृष्टि से सव नही देख्ते ! आरसुश्रौ के साथ रहीम ने एक अद्भूत रहस्य खोज निकाला ह । “रहिमन” अंँसुवा नयत ढरि, जिय दुख प्रकट करेय। जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कहि देय ॥ जिसे हम घर से निकाल देगे, वह घर का भेद अवश्य प्रकट कर देगा । जेसे ऑसुओ ने निकल कर हृदय का दुख बता दिया। कवि सौन्दयं देखता है । चाहे वह सौन्दयं बहिजंगत्‌ का हो, चाहे अन्तर्जगत्‌ का | जो केवल बाहरी सौन्दर्य का ही वर्णन करता है, वह




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