जैनतिथिदर्पण विरसवंत् | Jaintithidarpan Dharmprshnotrvachanika

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Jaintithidarpan Dharmprshnotrvachanika by श्रीलालजैन व्याकरणशास्त्री - Shri Lalajain Vyakaranshastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३४ सल्यवादी | सत्य एक अपूर्व रत्नाकर है, नो इसमें अवगाहन करते है, उन्हें अल्म्य रतन प्राप्त हेति है। अंकल कब कमीज ि>त ०० अथम भाग 1 अगहन, पौव श्रीवीर नि. २४३९ 1 अ श्रीसीमन्धरस्वामीके नाम खुली चिट्ठी । ( लेखक, श्रीयुत्‌ वाडीलाल मोतीलाल शाह ) प्रेमके समुद्र हे भ्रमो | मैं आज्ञानी हूँ, चारों ओरसे मोहपाशर्म फंसा हुआ हूं, अशरण हैं और अनेक प्रकारकी आधि व्यापिते असित हूं। ऐसी मयेकर त्थितिमं किसके पाप्त जाकर मैं मीख माग किससे ज्ञानका मार्ग समझूँ?! ककरैस्के पाप्त जाकर हृदयकी उत्कण्ठा यड ओर कि्तके द्वारा ज्ञानांनन अंजवाकर वत्ञानांन्ध दूर करूं? मुझे ऐसा परम पुरुष अमीतक कोई म्राप्त नहीं हुआ। इसीसे मूलकर यहां वहां मटकता फिरता हूं--इघर उधर टकराता फिरता हूं। कहीं मी सद्चेमागेके न मिलनेसे मेरी यह हाढत होगई है। पर हे विभो! आप तो दयालु हो, भक्त वत्सक हो, अन्धके




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