गीता प्रवचन | Geeta Parvachan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुनका विषाद १५
३. गीताको प्रयोजन : स्वधर्म-विरोधी मोहुका निरसन
११, अर्जुन अहिसाकी ही नहीं, संन्यासकी भी भाषा वोलने खगा ।
वह् कहता ह-“इस रक््त-लांछित क्षात्र-धर्मसे संन्यास ही अच्छा है ।”
परन्तु क्या वह अर्जुनका स्वधर्म था ? उसकी वह वृत्ति थी व्या ?
अर्जुनं सन्यासीका वेष तौ वड़े मजेमें वना सकता था, पर वसी वृत्ति
कैसे छा सकता था ? संन्यासके नामपर यदि वहु जेगलमें जाकर
रहता, तो वहाँ हिरन मारना शुरू कर देता 1 अतः भगवानेने साफ
ही कहा-“अर्जुन, जो तू यह कह रहा हैं कि मं लडंगा नही, वह् तेस
अम हैं। आजतक जो तेरा स्वभार्व बना हुआ हैं, वह तुझे लड़ाये
बिना रहेगा नहीं!”
अर्जुनको स्वधमं विगुण मालूम होने लगा । परन्तु स्वधर्मं कितना
ही विगुण हो, तो भी उसीमें रहकर मनुष्यको अपना विकास कर लेना
चाहिए; क्योकि उसमे रहनेसे ही विकास हौ सकता है । इसमें
अभिमानका कोई प्रन नहीं ह । यह् तो विकासका ঝুল हु । स्वधर्मं
ऐसी वस्तु नहीं हैं कि जिसे बड़ा समझकर ग्रहण करें और छोटा समझ-
कर छोड़ दें । वस्तुत: वह न बड़ा होता है, न छोटा । वह हमारे
नापका होता है। भेयान् स्वघर्मो विगुणः इस गीता-वचनमे ভন
शब्दका अर्थ हिन्दू-धर्म, इसलाम-धर्म, ईसाई-घर्म आदि जैसा नहीं हैं ।
प्रत्येक व्यक्तिका अपना भिन्न-भिन्न धर्म हैं। मेरे सामने यहाँ जो
दो सौ व्यक्ति मौजूद हैं, उनके दो सौ धर्म हें । मेरा भी धर्म जो दस
वर्ष पहलेथा, वहआज् नहीं है । आजका धर्म दसवर्ष बाद टिकेगा नहीं।
चितन ओर अनुभवसे जसे-जसे वृत्तियां बदलती जाती हु, वेसे-वर्से
पहुलेका धर्म छुटता जाता और नवीन धमं प्राप्त होता जाता है ।
हठ पकड़कर कुछ भी नहीं करना है । है ए
২০. दूसरेका धर्म भले ही श्रेष्ठ मालूम हो, उसे ग्रहण करनेमें मेरा
कल्याण नहीं है । सूर्यका प्रकाश मुझे प्रिय हु। उस प्रकाशसे में
बढ़ता रहता हूँ। सूर्य मेरे लिए वंदतीय भी हैँ। परन्तु इसलिए
यदि मैं पृथ्वीपर रहना छोड़कर उसके पास जाना चाहूँगा, तो जलकर
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