मलूकदास जी की बानी | Maluk Das Ji Ki Bani

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Maluk Das Ji Ki Bani by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रेम ऊ तोजी और निमाज न जानूँ, ना जानूँ धघरि रोजा । बॉग जिकर तबही से बिसरी, जबसे यद्द दिल खोजा ॥ ४ ॥ कहें. मलूक अब कजा* न करिहीँ, दिल दी सेँ दिल लाया । सकका हृज्ज हिये में देखा, पूरा सुरसिद॒ पाया ॥ ५. ॥ प शब्द 2 || दर्द-दिवाने बावरे, अलमस्त फकीरा । पक अकीदा' ले रहे, ऐसे सन-धीरा ॥ १ ॥ प्रेम पियाला पीवते, बिसरे सब साथी । आठपट्र याँ खूमते, उ्योँ माता दाथी ॥ २ ॥ उनकी नजर न आवते, कोष राजा रंक । संघन तोड़े मोह के, फिरते निदसंक ॥ ३ ॥ साहेघ मिल साहेघर भये, कछु रददी त तमाईइंह। कहे मलूक तिस घर गये, जहेँ पवन न जाई ॥४॥ ॥ शब्द ४ ॥ मेरा पीर निरंजता, में खिजमतगार । ठुद्दी तुद्दीं निस दिन रटीं, ठाढ़ा दरबार ॥१॥ मददल मियाँ का दिलहिं में , ओ सददजिद कांया । छूरी देता ज्ञान की, जबतें लो लाया ॥ र॥ तलवीं फेरे ँ प्रेम की, दिया करों निवाज । जहेँ तहूँ फिरों दिदार को उसही के काज ॥ेप के मलूक अलेख के, अब हाथ बिकाना । नादी खबर वजूद” की में फकीर दिवाना ॥४॥ कि “अर, (थे भाग ! (९) चही हुई नमान पढ़ना। ते अवीत। ठ सनक, चाह । हैँ




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