अपरिग्रह - दर्शन | Aparigrah Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आवश्यकताएँ ओर इच्छाएँ : ४ करता है ओर कहता है कि जब तक मनुष्य गृहस्थ-अवस्था में है, उसके साथ अपना परिवार भी है, समाज भी है ओर राष्ट्र भी है। इन सव को छोड़ कर वह अलग नहीं रह सकता है। और जब अलग नहीं रह सकता हे तो इन सब की आवश्यकताओं को भी नहीं भूल सकता है। अगर वह भूल जाएगा तो अपने आपको ही भूल जाएगा | अतएव गृहस्थ अपनी आवश्यकताओ की उपेक्ता नही कर सकता | इसी कारण घसशास्त्र ने इच्छापरिसाण” का व्रत बतलाया है, आवश्यकतापरिमाण? का ब्रत नहीं वतलाया | आवश्यकताएँ, ते आवश्यकताएँ ही हैं और किसी भी आवश्यकता को भूला त्हीं जा सकता--छोड़ देना तो असम्भव सा है | वास्तव में, षह आवश्यकता ही नही; जो छोड़ी जा सके। जो भूली जा-सके । यह तो इच्छा ही होती है, जो त्यागी जा सकती है। मनुष्य की इच्छाएँ जब आगे बढ़ती हैं तो अनेक नई कल्पनाएँ जाग उठती हैं। और उन कल्पनाओ के कारण कुछ इच्छाएँ आवश्यकताओं का रूप धारण कर मनुष्य के जीवन में ठहर जाती हैं। ओर क्योंकि उन इच्छाओं को आवश्यकता समझ लिया जाता है, तो जीवन ऱज़्त रूप धारण कर लेता है। अतएव जैनधर्म कहता है कि ऐसी इच्छाओं को, जो तुम्दारी आवश्यक- ताओं से मेत् नहीं खातीं ओर आगे-आगे बढ़ती जाती हैं, काट दो, समाप्त कर दो । जो अपनी इच्छाओं को, आवश्यकताओं तक ही सीमित रखता है, सका गृहस्थ जीवन सन्तोषमय श्रौर




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