और अंत में | Or Ant Me

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Or Ant Me by Harishankar Parsai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बार अंत में.... हे १७ कोई पत्रिका न होने के कारण मेरा मन डरता है । घादल भराकाश में भाचसिक कथाओं की तरह छा गये है श्रौर उनमें बिहार के पूर्णियां शिलें के नक्शे धन-विगड़ रहे है । मेंदक चारो भोर टर्रा रहे है जैसे नये कवि रचना-प्रक्रिया पर चर्चा कर रहे हों । है लक्ष्मण, तालाव पानी से लबालब भर गये है, मानों बादलों ने इनकी रायलटो का पूरा हिसाव कर दिया हो । देखो, वादलो में कमी-कभी बिजली चमक जाती हैं, जैसे २-४ महीने में किसी पश्चिका में कोई भ्रच्छी कविता दिख जाती हूँ । हें सच्मण, ज़रा सावधानी से चलो | घास में साँप छिपे है, जंसे छदमनाम के पीछे लेखक छिपा रहता हैँ जो दिखता नहीं हैं, सिर्फ काटता हूँ ! उधर सुनो । एक मेंढक बड़ी प्रसप्नता से खूब ज़ोर से टर्रा रहा हूँ जैसे किसी लेक को पुस्तक माध्यमिक कत्ताझों के पाठ्य-क्रम में आ गयी हो । पक्नी घोंतलों ते सिर निकाल कर बार-बार भॉर्क रहे है जैसे बड़े लेखक लिखना छोड़, उत्सुकता से प्रतिनिधि मंडली में विदेश जाने का मौका ताक रहे हों । है भाई, यह पच्षी वृज्न से उड़ कर यहाँ घर की मेहुराव में बैठ गया, जेंमे परम झाचलिक *रेग' मौसम ख़राब देख कर, ग्राम-जीवन से उठ कर. शहरी मध्यम वर्ग पर थ्रा गये है । लचमख, या. न की कि. लग है लद्मणण, < '... “रहा है! ऐसा लगता हैं न न पर लेख लिख कर, चर जाने की महत्वा-




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