काले साहब | Kale Sahab
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1.373 GB
कुल पष्ठ :
198
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)काले साहव
और दूसरे रिक्शा के बराबर आते ही श्रीवास्तव उचक कर उसमें बैठ
गया | बुश्शर्ट को दोनों ओर दामन से ज़रा खींच कर, उसने ठीक किया
ओर पतलून को तनिक ऊपर उठा लिया कि उसकी क्रीज़ खराब नहो
जाय | वह पीछे की ओर पीठ लगाकर आराम से नहीं बैठा । बुश्शर्ट
के मसले जाने का उसे भव था; और डी० एम० से मिलने तक
वह इसी प्रकार लक-दक बना रहना चाहता था | रिक्शा पर बह इस
अकार अकड़ा बैठा था जैसे डी० एम० से हाथ मिलाकर अभी-अभी
कुर्सों पर बैठा हो । सीधा, अकड़ा और चाक चौबन्द !
रिक्शा वाला ख़ाकी सूट पहने था| यूट बहुत मैला भी न था।
शक्ल से भी वह साधारण रिक्शा वाला न मालूम होता था । इलाहाबाद
के रिक्शा वालों में देहातियों का बाहुल्व रहता है | फ़लल का मौसम न
हो ओर काम से छुट्टी हो तो निकटवर्ती गाँवों के देहाती अपने लम्बे
तगड़े शरीर पर खादी की बंडी और कमर में अँगोछा बाँघे, मुर्री में एक
जूत का राशन लिये इलाहाबाद की ओर चल पड़ते हैं | संध्या को
पहुँचते हैं, रात के लिए रिक्शा लेते हैं और सवारियों से पैसा पैदा करके
ही दूसरे जून के सत्तू खरीदते हैं। इन्हीं रिक्शा वाले देहातियों की
सुविधा के लिए बहुत से पनवाड़ियों ने पान, बीड़ी, सिगरेट के साथ सत्तू
के थाल भी सजा रखे हैं, जिनके पिरामिडों में हरी मिर्च खुसी अजब
बहार देती हैं।ये देहाती रिक्शा वाले, रिक्शा चलाते-चलाते जब
ज़रा समय पाते हैं तो सेर आध सेर सत्तू ले, उन्दीकी थाली में गंध
लौंदा सा बना कर हाथ पर रख लेते हें और मिचों की सहायता से
निगल कर पास के किसी नल से दो घूँट पानी पी लेते हैं ।
कहते हैं कि गीदड़ की मौत आती है तो वह नगर की ओर
भागता है | उस गीदड़ और इन देहातियों में कोई विशेष अन्तर नहीं ।
दिन-दिन भर और कई वार दिन और रात भर रिक्शा चला कर जहाँ
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