तार के खम्भे | Taar Ke Khambhe

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Taar Ke Khambhe by सत्य जीवन वर्मा - Satya Jeevan Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ [ तार के खम्भ सन्नाटा था। वृक्षों की डालियों को हिलाती हुई वायु मानों उसासें भर रही थी। मानों उसी दुख को प्रकट करने के निमित्त वृक्षगण अपनी पीली पत्तियाँ टपका देते थे। दूर पर एक नाला कङ्कडं से उलमता हुआ, कराहता हुआ मानों बह रहा था। जुड़ावन ने शिशु को अपने समीप लिटा दिया | उसने एेसा अनुभव किया मानों यह उसके सिर का जञ्जाल हो । बच्चा उसे अपनी टिमटिमाती इर शंखो से देखता हुआ मानों चिन्ता-मगन अपनी मुद्र चस रहा था । जुड़ावन की অল में नहीं आ रहा था कि चह क्या करे। ज्षण भर के लिए उसने सोचा- “यहीं होड दू । फिर वह्‌ उस असहाय के प्रति सहानुभूति और करुणा से भर गया। उसके प्रति “आत्मीयता” ने जुड़ावन के मस्तिष्क से वह विचार निकाल फेंका । उसने बच्चे को गोद में उठा लिया, छाती से चिपकाकर वह उसे ध्यान से देखने लगा। उसे ऐसा जान पड़ा मानों वह उस शिशु में अपना शैशव-रूप देख रद्द हो। उसका हृदय अनुराग से भर गया । उसका शरीर रोमग्ित हो उठा । उसकी आँखें सजल हो गई । “बच्चे !”-उसने शिशु को सम्बोधन करके कहा--- “तू मेरा बेटा है, मेरी ही भाँति तु भी एक दिन दोगा। तू दीवारों पर छिपकली की भाँति चढ़ेगा,




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