जैन धर्म का प्राचीन इतिहास | Jaindharma Ka Pracheen Itihas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना (संस्कृति को मानव जीवन के विकास की एक प्रक्रिया कहा जाय तो कोई भ्रत्युक्ति नहो होगी 1 संस्कृति शब्द ग्रनेक भर्थो मे रूढ है उन सब र्थो की यहा विवक्षा न र मात्र संस्कारों का सुधार, युद्धि सभ्यता, भआाचार-विचार सादा वेष-भूषा शौर रहन-सहन विवक्षित है|) प्राचीन भारत सें दो सस्क्ृतिया बहुत प्राचीन काल से प्रवाहित हो रही है। दोनो का अपना अपना महत्व है फिर भी दोनों हजारो वर्षो से एक साथ रह कर भी सहयोग और विरोध को प्राप्त होती हुई भी एक दूसरे पर श्रपना प्रभाव श्रकित कयि हए है । इनमे एक वेदिक सस्कृति है भ्रौर दूसरी भ्रवैदिक । वैदिक सस्छृत्ति का नाम ज्राह्मण संस्कृति है । इस संस्कृति के अनुयायी ब्राह्मण जब तक ब्रह्म विद्या का अनुष्ठान करते हुए अपने श्राचारःविचारो में दृढ रहे, तब तके उसमे कोई विकार नही हुश्रा, किन्तु जब उनमे भोगेच्छा और लोकेषणा प्रचुर रूप में घर कर गई, तब वे ब्रह्य विद्या को छोडकर शुष्कं यज्ञादि क्रियाकाण्डो मे धमं मानने लगे । उसमे वैदिक सस्कृति का क्रमशः वास होना शुर हो गया । श्रपने उस प्राचीन मूल रूप से मुक्त होकर वह्‌ সাজ भी उज्जीवित है) | द्सरी अवैदिक संस्कृति को श्रमण सस्कृति कहते है । प्राकृत भाषा मे इसे समन भ्रौर सुमन कहते है भ्रौर सस्छृति मे श्रषण । समन का अ्रथं समता है, रागद्वेष रहित परमशान्त भ्रवस्था का नाम समन है, अथवा शत्रू भित्र पर जिसका समान भाव है एेसा साधकोपयोगी समण या श्रमण कहलाता है । श्रमण शब्द के अनेक अर्थ है परन्तु उन গাঁ की यहाँ विवक्षा नही है, किन्तु यहाँ उनके भ्र्थो पर विचार किया जाता है। श्रम धातु का श्र खेद है, जो व्यवित परिग्रह पिक्चाच का परित्याग कर घर बार से कोई नाता न रखते हुए भ्रपने शरीर से भी निस्पृह एव निर्मोही हो जाते है, वन मे आत्म साधना रूप श्रम का आचरण करते है अपनी इच्छाओं पर नियत्रण रखते है, काय कनेशादि होने पर भी खिन्न नही होते, किन्तु विषय-कषायो का निग्रह करते हुए इन्द्रियो का दमन करते है वे समय पर श्रमण कहलाते ह ! भ्रथवा जो बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थियो का त्यागकर तपदचरण करते है, आत्म-साधना मे निष्ठ और ज्ञानी एव विवेको बने रहते है-(श्नाम्यन्ति बाह्याभ्यन्तरं तपदचरन्तोति भ्रमण.) जो जुभा-शुभक्रियाभ्रो मे भ्रच्छे बुरे विचारो मे वुण्य-पाप रूपं परिणतियो मै तथा जीवन, मरण, सुख-दुख में और आत्म-साधनों से निष्पन्न परिस्थितियों मे रागी द्वेषी नही होते प्रत्युत समभावी बने रहते है वे श्रमण कहलाते है । जो सुमन है--पाप रूप्‌ जिनका मन नही है, स्वजनो भ्रौर सामान्य जनों भे जिनकी दृष्टि समानं रहती है । जिस অহ কু मुभे प्रिय नही है, उसी प्रकार ससार के सभी जीवो को भी प्रिय नही हो सक्ता। जोन दससों कौ स्वय मारते ইন दुख संक्लेश उत्पन्न करते है श्रौरन दूसरोकोमारनेश्रादिकी प्रेरणा करते है । किन्तु १ (क) जो समरो जई सुमणो, भावेण जई ण होड पामणो । समझे भ्रजणोयसमो समो अमाणाभ्वमारेषषु ॥ जह न गमन शियं दु ख जाशिय समेव सव्व जीवाणं । न हइ न हणावेहय समखणदईं तेण सो समणो --(अनुयोगद्वार १५० (ख) यो च समेति पापानि अणु थूलानि सव्वसो । समितन्ता हिं पापान समणोतति पवृच्चति ॥ (धम्मपद १६-१०




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