न्यायदीपिका | Nyaydipika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
388
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about दरबारीलाल जैन - Darabarilal Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ह|
व्याकरणक श्रमुसार दशन न्द (टश्यते=निरगणीधते कस्तुतस्षमने-
नेवि दशेनम्ः अथवा हश्यते निर्णीयत इदं बस्तुवत्वमिति दशेनम्ः ` ` `
इन दोनों स्युखसतियोके श्राधारपर दश् धसे निष्पन्न होता है । पहलौ `
अ्युत्पत्तिके श्राधारपर दशन शब्द तकं~वितक, मन्थनं था परीच्तास्वरूप उसं
विचारधाराका नाम है बो तस्वोके निर्ण॑यमें प्रयोजक हुआ करती हे ।
दूसरी व्युत्पत्तिके आधारपर दर्शन शब्दका श्रर्थ उल्लिखित विचारधाराके
द्वारा निर्णीत तस्वोंकी स्वीकारता होता ह। इस प्रकार दर्शन शब्द
दाशनिकं अगते इने दोनों प्रकारके अ्र्थोर्मि व्यवद्वत हुआ हे अर्थात्
मिन्न-मिन्न मंतोंकी जो तत्त्वसम्बन्धी मान्यताथे हैं उनको और जिन तार्किक
मुद्*ोंक आ्राधारपर उन मान्यताओंका समर्थन होता है उन तार्किक
भुददोको दशं नशाखके श्रन्तशत स्वीकार किथा गया है ।
सत्रसे पदिले दशनोको दो भागोमिं विभक्त किया जा सकता है--
भारतीय दशन और श्रभारतीय ( पाश्चात्यं ) दशन | जिनका प्रादुर्भाव
भारतवर्षमें हुआ है वे भारतीय और जिनका प्रादुमाव मारतवके जार
पाश्चात्य देशॉमें हुआ है वे अ्मारतीय ( पाश्चात्य ) दशन माने गये हैं ।
भारतीय दर्शन भी दो मागोंमें विभक्त हो जाते हैं--वेदिक दर्शन और
अवेदिक दर्शन | वैदिक परम्पराफे अन्दर जिनका प्रादुमोंब हुआ है तथा
जो बेदपरम्पराके पोषक दर्शन हैं वे वेदिक दर्शन माने जाते. हैं और
बेदिक परम्परासे भिन्ने जिनकी स्वतन्त्र परम्परा है तथा जो वैदिक परम्पराके
बिरोधी दर्शन हैं उनका समात्रेश अवेदिक दर्शनोंमें होता है। इस सामान्य
नियमके आधारपर वेदिक दशंनमि मुख्यतः सांख्य, वेदान्त, मीमांसा,
यगः न्याय तथा वेशेषिक दर्शन आत्ते हैं और जैन, बौद्ध तथा चार्वाक .-
दर्शन, अ्रवैद्िक दर्शन ठहरते हैं।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...