भक्ति योग | Bhakti - Yog

Bhakti - Yog by श्री राम विलाश पाण्डेय - Shree Ram Vilash Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्ति के लक्षण श्पर '. दर्शन” के समानाथक व्यवद्दार किया गया है। क्योंकि जो '. निकट है वह देखा जा सकता है; किन्तु दूरवर्ती वस्तु का केवल स्मरण दो सकता है। तथापि शाख्र हमें निकटस्थ तथा दूरस्थ दोनों को देखने को कहता है। इस प्रकार स्मरण तथा द्शन दोनों समकार्यकर श्और समसाव हैं । यही स्मृति होने: पर दर्शन ही के समान हो जाती है। शास्ों के प्रधान-प्रधान शोकों से यह स्पष्ट है कि सर्वदा-स्मरण ही उपासना है । ज्ञान-- जो निरंतर उपासना से अभिन्न है--निरंतर-स्मर्ण ही कहा . गयाहै। इसीलिये जब स्पृति अ्रत्या्ताचुभूति का श्ाकार धारण करती है; तो शास्र उसे मुक्ति का कारण कहता है । यह “आात्मन? नाना अकार की विद्याओं द्वारा, बुद्धि द्वारा किंवा झानवरत वेदा- ध्ययन द्वारा नहीं प्राप्त होती । जिसको यदद 'यात्मा स्वयम्‌ वरती है; चही इसे प्राप्त करते हैं और उन्हीं को यदद आत्मा अपना स्वरूप प्रकाशित करती है। यहाँ पहले तो यह कद्दा गया है कि यह छात्मा श्रवण, मनन तथा अधिक अध्ययन द्वारा भी नहीं माप होता और फिर कहते हैं कि आत्मा जिसको स्वयम्‌ बरती है, उसे ही वह प्राप्त होती है । अत्यन्त प्रिय को ही बरा जाता है । जो आत्मा से झतिशय प्रेम करते हैं, छात्मा उन्दीं को अत्यन्त प्रेम , करती है.। और इस प्रिय व्यक्ति को आत्मा प्राप्त करने में स्वयं भगवान सद्दायता करते हैं । भगवान ने स्वयं कहा है “जो मुभें निरंतर आसक्त है और प्रेम से मेरी उपासना करता है, मैं उसकी बुद्धि 'और भावनाओं को ऐसा संचालित करता हूँ कि वद्द मुझे




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