मेरी विकास कथा अर्थात दिव्य दर्शन | Meri Vikas Katha Arthat Divya Darshan

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Meri Vikas Katha Arthat Divya Darshan  by स्वामी सत्यभक्त - Swami Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मनी तरिकास कथा { १३ उनके दुःख में दुःखी होने में जो आनन्द दै-उसकौ चराचधै कोन कर सकता है ! तुम्हारी ये चडी बड़ी आंखे, जो आंसुओं का कटोस মাতুল झोती हैं, इन पर सारा सौन्दर्य न्‍्यौछाबर किया जा सकता इ । तुम्हारी आंखों की एक एक बूंद में सब रसें। का सार भरा हुआ है | इसीलिये ते कब्रियों न करुणश्स को प्रधानरस कह्ढ। दे । सभी सम्य ददयों में तुम्झस ही के राज्य है दया | जी हां, पर आपके हृदय में तो नहीं है | सच कडा तुमने, मेरे द्वदय में तुम्हारा राज्य तो नहीं ६, पर में तुम्हारा जितना खयाड रखता हूं-उतता किसी «सर का नहीं रखता । इसीडिये मेरे कपड़ों प्र जब चाहे तब कैंचो चलाया करते हैं ! अधूरी बात न बोले दया, में कैंची भी चलता हूं ओर सुई भी । फाइता भी हूं और जोड़ता भी हूं। आडिर में तुम्हारा जी हूं-ठीक पोशाक बनाने के लिये यह सब करना द्वी पडता दे । 3टे पिता की बातें से सभी हँसने छगे । में भी दँसा, पर इस हँसी के आनन्द से अधिक आनन्द मुझे यह देखकर हुआ कि दया का छोटे पिता से कैसा मीठा सम्बन्ध द्वे । शल्कि मैंने तो यदी नुभव किया के ये चारों देव-देवियां जब तक छोटे पिता के अकुश में हें तभी तक ठीक हैं | 8 में यह सब सोच द्वी रद्या था के छोट पिता ने मेरी तरफ देखकर कद्दा-क्यों रे | क्‍या सोचता है £ इनमें से त किसे पसन्द करता हे !




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