लोक रंग : लोक रूप | Lok Rang Lok Roop

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घण महताऊ लोक-कथावां लोक कथावां री हथाकी मे उभरियोड़ी जीवण-रेख घणी लांबी हुया करै। काछ रै छोटै-मोटै सपेरा री गिनार किंया बिन्ता अ कथावां धर कूंचा, धर मजला” चालती रैवै। लोक कथावां रो जलम मिनख रै विवेक री कूख मांय सूं हुयो। इंया कैयो जाय सके है के औ कथावा उत्ती ई पुराणी है जितो मिनखाचारै रो विवेक | इंयां रो विस्तार कोई दो-चार गांवां में हुवे या एक-दो प्रात्ता मे हुवै, आ बात कोनी। आख॑ै संसार मे लोक कथावां रो न्यारो-निरवाब्ठो महत्व: है। ग्यान-गंगा में झबोव्ण खांवत्ती-खावत्ती अ इत्ती घणमोल्ठी वणगी के पीढ़ी-दर-पीढी चालिया पाण ई नीं तो मगसी पडी अर नीं काछ रा गासिया बणी | काछ री आ ताकत कोनी कै धचके सूं इंयां गासियां नै गिट जावै। धुर टाबरपणे मे लोक कथावां रा जिका संस्कार पड वै आखी उमर साथ निभावता रवे । जीवण री क्रियावां मे, आपस रै व्यवहार मे, रिस्तां री गणित मे, विणज-बौपार मे अर लोक-मरजादा मे इंयां री छाप पडियां बिना कोनी रैवै। हरेक पीठी आपरी नुवी पीढी नै खजानै री चावी दाई ग्यान रे इयै खजानै नै भूपती आई है । इया लागै कै कई सईकां पैली इयां मे जिक्ती ताजगी ही, उत्ती ई आज भी है ~ अकदम नुंवी अबोट जिंयां लागै । लोक कथावा अनुमवा री तिजोरी है; आपसी रिस्तां सारू मरजादा री कूची है; विवेक रै समन्दर माय मिलण वालै खरे मोतियां री चमक है अर पठ्पल्ाट करती मणियां है । মিলত जद अबखाया सू काठो धिर जावै, विपदावां रे जान मे कोजी तरियां फस जवै अर हिम्मत हारणी सुरू करदै, उण बगत लोक कथावां হা তুলা অভাব, তুলা वीरां रा द्विस्टात अर सतारे चरित्रां रा कथानक उण मे जीवण-जोत नै पाठी जगमग करै. उण चै हूस अर हौसलो देवै अर समस्यावां र चक्रव्यूह नै तोडण री जुगत्त बताये! लोक कथावा मिनखाचारे रे आदरसां अर मोलां नै आज ताई অমান্ত' राखिया हे । इया नै सुणिया, पढियां सू मन मे जिका भाव जागे वैद त्याग, बलिदान अर हिम्मत रा भाव, देस-ग्रेम, परोपकार अर समाजसेवा रा माव, प्रण माथे मर~मिटणे रा माव, प्रेमी-प्रेमिकावा रे साच प्रेम रा उजब्ठा भावा, जीव~-जिनावरां सारू करुणा रा भाव अर भगती मे इबोा खावता मन री निरमकता रा भाव । क्या कोई केय सक है कै अ भाव आज रै जीवण सारू फालतू (प) রি তা




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