सज्जनचित्तवल्लभ | Sajjanchittvallabh

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Sajjanchittvallabh  by नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

Add Infomation AboutNathuram Premi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
५ षद्धावरयकसत्कियापु निरतो धमीनुरागे बहन्‌ सद्धं योगिभिरात्मभावनपरो रत्नत्रयारुङतः ॥ ६॥ तू पश्युनारिनपुसकवाजित थान विपे नित तिष्ठ भिखारी । लेकर भुक्त अकारित जो, परगेह मिरे विधिके अनुसारी ॥ पार अवदयक षटूखुक्रियार्त, धर्म॑धुरन्धर हो अनगार । साधुन साथ समागम आतमलीन त्रिरत्नविभूषणधारी ॥६॥ अथे- हे भिक्षुक, पराए घर जो अपने लिये बिना बनवाया हआ दैवयोगसे ट्खा सूखा भोजन मिरु जवे, उसे खाकर सामाधिक, स्तवन, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान जीर कायो- तसर्मरूप छह सजियाओमिं छान होकर दशलक्षणरूप ঘন अनुराग रखकर, आत्मभावनामें तत्यर रहकर और सम्यद्रशैन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रयसे अलंकृत होकर योगी पुरुषोंके साथ ऐसे स्थानमें तिष्ठ, जहां कि ल्लियों नपुसकों और पश्ुओंका आवागमन न हो| दुगेन्धं वदनं वपुरभ॑लभरतं भिघ्ताटनाद्धोजनं शय्या स्थण्डिकभूमिषु प्रतिदिनं कव्यां न ते कपैटं । ण्डं परुण्डितमद्ेदग्धशषववक्वं दृश्यते भो जनैः साधोऽाप्यवङाजनस्य भवतो गोट कथं रोचते ॥ ७॥ आवत गन्ध बुरी मुखते, अर धूसर अंग भिछाकर खाना । भूमिकटठोरविषे नित सोवन, ना कटिमे परकौ इ ठिकाना ॥ - डित सड परे दग लोकन, अधैजले खुतअंग समाना । नारिनके संग तोह अरे मुनि, चाहत कयोकर बात बनाना॥५७॥ अर्थ--हे साघु, तेरे युहमेसे दंतधावन नहीं करनेके कारण बुरी गंध आती है, शरीर तेरा मैठसे लिपटा हुआ है, भिक्षा-




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now