साधना के पथ पर | Sadhna Ke Path Par
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
278
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भयर या !शरीफ' ? ह
करते थे। इसका कारण तो यह था कि में पढ़ने-लिखनेमें तेज था। जहीन
माना जाता था । कभी किसी विषय में फेल नहीं हुआ । दूसरा बढ़ा
कारण यह था कि में कभी किसी को 'नाहीं? नहीं कहता था । जिसने जो
काम बता दिया वह कर दिया। मां ने एक काम से कहीं भेज दिया, रास्ते
में दूसरे ने अपना बता दिया । पहले में उनका काम कर देता था, फिर
घर का-मां-का बताया हुआ | अब भी जब कोई अपनी गरज लेकर मेरे
पास आता है तो मुझे 'ना! कहना बहुत भारी मालूम होंता हैं व अपने
कामों की परवा न करके भी उनका काम कर देने की प्रव॒त्ति होती दे ।
मेरे घर के व साथी सब इस प्रवत्ति से एक अंश तक दुखी रहते हैं, मुझे
व मेरे कामों को इससे हामि पहुंचती है, मगर म॒भे कुछ ऐसा लगता है
कि ऐसे समय ना” कहना मलुप्यता व सहृदता के विपरीत है। इसमें
मूल प्र रणा तो अहिंसा या सेवा की है; परन्तु इसमें भी कोई सन्देह
नहीं कि समाज में सद्गुण की भी सोमा होती है । जबतक अपेक्षा हैं .
तब तक सीमाएं हैं, ऑर जबतक समाज हैं, हमारी सामाजिक दृष्टि है,
वबतक सापेक्तता की उपेक्षा नहीं हो सकती । समाज की हानि व टीका
या निन््दा की जोखिम लेकर ही भनुष्य निरपेक्ष रह सकता हैं और निर-
पेक्त, दृष्टि को पूर्णतः निभा सकता है ।
अपना नुकसान करके भी जो दूसरों के काम आता रहता है, चह
बेवकूफ” भले ही समझा जाय, मगर उसे प्यार सव करते दँ । उस बच-
पन के दिनों की एक ऐसी सनसनीदार घटना सुकरे याद् है जो इन उपद्ववों
की एष्ठभूमि में देने जैसी है। दर्जे में एक लड़के से मेरा झगड़ा हुआ ।
उसके पिता मदरसे में आकर मुझे डॉटने-डपटने लगे । हेडमास्टर साहब
ने उन्हें मना किया | वे उनसे भी उलरू पढ़े । हेडमास्टर ने अदालत में
मुकदमा चला दिया। में प्रधान गवाह बनाया गया। लड़के के बाप ने
अदालत में अलग ले जाकर सेरे पांच पर पगड़ी रख दी । रोने लगे--
तुम्हारी गवादी से भेरी इज्जत मिद्टी मे मिल जायगी । वे छुजुर्ग थे। में
इस भार को, उनके इतने जलील होने के इस च्य को, न सह सका ।
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