धर्म और संस्कृति | Dharm Or Sanskrati

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Dharm Or Sanskrati by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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:३; परम सास्यं जैनेंद्रकृमार आदमी ने जसे अपने होने कों अनुमच किया तमी से यह भ पाया कि उसके अतिरिक्त शेप्र मी है। उसकी अपेक्षा में वह स्वयं क्या है ओर क्यों है? अथवा कि जगत्‌ ही उसकी अपेक्षा में क्या है और क्‍यों है १ दोनों में क्या परस्परता और तरतमता है (--दैत-बोध के साथ ये सत्र प्रश्न उसके मन में उठने लगे । प्रश्न में से प्रयत्न आया | आदमी में सतत प्रयत्न रहा कि प्रश्नकों अपने में इछ कर ले । पर हर उत्तर नया प्रश्न पैदा कर देता रहा और जीवन, अपनी सुल्झन में ओर उल्क्षन में, इसी तरह बढ़ता रहा । सत्य यदि है तो आकलन में नहीं जमेगा | ऐसे सत्य सांत और जड़ हो जायगा। जिसका अन्त दे, वह और कुछ हो, सत्य बह नहीं रहता। ` पर मनुष्य अपने साथ क्या करे १ चेष्टा उससे चू नदी सकती । उसके चारों ओर होकर जो है, उससे निरपेक्ष चनकर वह जी नहीं सकता 1 प्रत्येक व्यापार उसे शेप के अति उन्मुख करता है।' बह देखता है तो वर्ण; उुनता है तो शब्द, छूता है तो वस्तु इस तर दर क्षणके हर व्यापार में वह अनुभव करता है कि कुछ है, जो वह नहीं हैं । वह अन्य है और' अज्ञात है | प्राप्त है और अग्राप्त है। यदि सत्य है. तो हर पल बन-मिट रहा है । यदि माया है तो हर क्षण ग्त्यक्ष है । अपने साथ लगे इस शेष के ग्राति मनुष्य की कामना শীত দত, उसकी जिज्ञासा ओर जिघांसा, कभी मी सन्‍्दू नहीं हुई है । आदमी ने.




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