ज्योति और ज्वाला | Jyoti Or Jwala

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Jyoti Or Jwala by लाभचंद जी - Labhachand Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ४ । के' दिन विवाह कर दिया | वर-वध की सुन्दर जोडी को निरख फर उभय ( पुत्र श्रौर कन्या ) पक्ष वाले तो श्रति आनन्द मनाने लगे परन्तु कुटिल काल के कलेजे मे इन ( वर-वधू ) का उत्तकर्ष त्रिशुल-सा प्रहार करने लगा, इसलिये अल्प समय में ही उस (काल) ने सदा के लिये इनका पारस्परिक विछोह (वियोग) कर दिया, श्रर्थात्‌ विवाह होने के बाद थोडे समय के ही हमारो चरित्र नायिका के पत्तिदेव प्रलोक को सिधार गये। इस दुर्घटना ने सुगनक्‌वर को जो दुख दिया उसका उल्लेख करना लेखनी की शक्ति के बाहर की बात है। विलपती हुई पुत्री को माता ने भ्रनेक सतियो के सुन्दर दृष्टान्त दे देकर धेये वंधाना शुरु किया । सति- यो के दृष्टान्तो को सुनने पर सुगनक॒वर का हृदय ससार से विमुख होकर वैराग्य मे निमग्न हो गया । उसने हढ सकत्प कर लिया निन्द होकर भगवान का भजन करने के लिये श्रवतो श्रविलम्ब घर से किनारा करना अच्छा है। एतदथ आपने अपनी मातुश्री से कहा । माता ने पुत्री के सुन्दर विचारो का समर्थन किया। माता के समर्थन को प्राप्न कर, पश्चात्‌ सासु श्रौर सुर से निवेदन किया कि--यदि प्राप प्रसन्नचित्त होकर आज्ञा दे तो मैं भगवती दीक्षा घारण करू । यद्यपि साधु ओर श्वसुर ने आपकी उत्तम घारणा का समर्थन किया परन्तु कुछ सकुचित होकर मन्दस्वर से यो बोल उठे कि--हमारी अवस्था श्र दु खमय स्थिति की ओर ध्यान घर कर कुछ दिनी के लिये ठहर जाये तो अ्रच्छा है। उत्तर मे आदरणीय सासु और खसुर से सविनय श्राप (सुकनकुवर ) ने यो निवेदन किया कि--श्राप इस प्रकार सकुचित क्यो हा रहे हैं। सानन्द आपकी श्राज्ञा प्राप्त किये विना मैं एक पैर भी इधर-उघर नही रखूगी। यद्यपि सासु ओर खयसुर के, पुत्र वियोग से व्यथित हुए हृदय




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