उत्तरज्भव्यणाणि [भाग २] | Uttarajbhavyanani [Bhag 2]

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uttarjbhavyanani [Bhag 2]  by आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रकाशकोय 'उत्तरतक्यणाणि” ( उत्तराष्ययन सूत्र ) मूलपाठ, सत्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिपण अलकृत होकर दो भागों में पके हाथों में है । वाना प्रपृख धश्रायं श्रो तुलसो एवं उनके दगित भौर शकार पर सब कृ न्योछावर कर देने वाले मुनि-वृन्द की यह समवेत कृति आगमिक कार्य-क्षेत्र में युगान्तरकारी है | इप कथन में अतिशयोक्ति तहों, पर सत्य है। बहुपुलो प्रष्र्ियों के कैर प्राणपुञ्ज आचार्य श्री तुलसी ज्ञान-क्षितिज के एक महान्‌ तेजस्वी रवि हैं और उनका मण्डल भी शुक्न भक्षत्रों का तपोपुष्ज है। यह इस छत्यन्त श्रम-साध्य कृति से स्वय फलोमूत है । ग्रदेव के घरणों में मेरा विनद्न सुझाव रहा--श्रापके तत्त्वावधान में आगम्मों का सम्पादन और अनुवाद हो--यह भारत के घांस्कृतिक् अम्पुदय की एक मल्यवान्‌ कड के रूप में चिर-अपेक्षित है। यह झत्यन्त स्थायी कार्य होगा, जिसका छाभ एक-दो-तीन नहीं अपितु अचिन्त्य भावी पीढियों को प्ररत होता रहेगा । मृतते इस बात का घत्यन्त हुव॑ है कि मेरी मनोभाषना अकुरित ही नहीं, पर फलवती भौर रसवती भी हुई है । प्रस्तुत 'उत्तरस्भयंणाणि' भआम-बनृसधान प्रन्थमाला का दवितीय प्रन है । इससे पूवं प्रका वित दसवेभाणिय' ( मृश पाठ, सस्कृत- छाया, हिन्दी अनवाद एवं टिप्पण पृक्त ) को अब अनुसन्धान ग्रन्थमाला का प्रथम ग्रन्थ समभना चाहिए । 'दप्तवेआलियं” एक जिल्द में प्रकादित है। उसमें टिप्पण प्रत्येक अध्ययन के बाद में है। 'उत्तरज्भयणाणि' में टिप्पणों की अलग जिर एृप्त द्वितीय भाग के रूप में प्रकाशित है । टिप्पणों के प्रस्तुत करने में तिर्युक्ति, चूणि, टोकाओं भादि के उपयोग के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण प्रन्यों का भी सहारा लिया गया है, जिनकी सूची परिशिष्ट-३ में दे दो गई है । प्रथम परिशिष्ट में धाब्द-विभर्ण और हितीय परिषिष्ट में पाठान्तर-विभर्षा प्माहित हैं । दस तरह टिप्पण भाण अपूर्व अध्ययन के साथ पाठकों के सामने उपस्थित हो रहा है। प्रयृक्त ग्रन्थों के सत्दभ सहित उडरण पाद-टिप्पणियाँ में दे दिये गये हैं, जिम्से जिज्ञानु पाठक की तृप्ति हाथों हाथ हो जातो है और उसे सदर्म॑ देखने के लिए हृधर-उघर दौडना नहीं पडता । तेरापथ के आचार्यो के बारेमे यह कहा जाता है कि उन्होने प्राचीन चूणि, टीका शादि प्न्य का वटिष्कार फर दिया। वास्तव में इसके पीछे तथ्य नहीं था। सत्य जहाँ भी हो वह आदरणीय है, यही तेरापथी आचार्यों की दृष्टि रहौ। चतुर्थ आचार्य जयाचाय ने पुरानी टीकाओं का कितना उपयोग किया था, यह उतकी भगवती जोड़ आदि रचनाओं से प्रकट है। 'दसवेआलिय' तथा 'उत्तरज्मयणाणि' तो इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि नियुक्ति, भाष्य, चूणि, टोकाओं आदि का जितना उपयोग प्रथम बार वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलतो एव उनके चरणों में सम्पादन-कार्य में छगे हुए निकाय सचिव मुनि श्री नधप्रलजी तथा उनके सहयोगी साधुओं ले किया है, उतना किपी মী अद्यावधि प्रादित सानुवाद संस्करण पे नेहो हृभा ह । सारा बनुषाद एव रेखन-कायं अभिनव कत्पना को लिए हुए हैं। मौछिक चिल्तन मी उनमें कपर तहो है । बटृश्रतता एव ग भीर अन्वेषण प्रति पृष्ठ से भलकते है । यह माण पाठकों को लनेक नहं सापत्री प्रदान करेगा । पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि भाराय श्री $ तत्वावधान मे सन्तो द्वारा प्रस्तुत पाण्डुलिपि को नियमोनुषार वधार कर उसको प्रतिलिपि करते का कार्य भादणां साहित्य सघ (घूष्ट) द्वारा सम्पन्न हुआ है, जिसके लिए हम सध के सचालकों के प्रति कत्त है । अर्थे-व्यवस्था इस प्रत्य के प्रकादात शा व्यय विराटनार ( नेपाल ) निवासी श्री रामछालजी हँसराजजी गोलछ्ा द्वारा श्रो हँसराजजी हुणासचन्दजी गोलछा को स्वर्गीया माता श्री धापीदेवों (पर्मपक्षी श्री रामछाछजी गोलछ्ला) की स्मृति में प्रदत्त निधि से हुआ है। एतदर्थ इस शनुकरणीय अनुदात के लिए गोछछा-परिवार हार्दिक धन्यव|द का पात्र है।




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