जीवन - साहित्य | Jivan - Sahitya

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Jivan - Sahitya by काका कालेकर -Kaka Kalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१९ जन्माए्टमी पश्चाचाप कर और श्रीहरि की शरण में जा।” मानी कंस ने तिरस्कारयुक्त दाप्य के साथ उत्तर दिया कि; सम्राट्‌ समरभूमि से पराजित हुए बिना पश्चात्ताप नहीं करते |? (तथास्तु कह कर निराश हो नारद चले गये । कस ने सोचा, चव तक जो सम्राट. सफल न हुए, इसका कारण है उनकी असावधानता, उन्हे पूरी तरह सावधान रहने का ज्ञान न था । यदि से भी गाफिल रहा तो मुझे भी पराजय स्वीकार करना पड़ेगा | पर इसका ङु अन्देशा नही । वीर पुरुष तो सदा विजय के लिये ग्रयत्न करता है, किन्तु पराजय के लिये तैयार रहता है । हार जाना बुरा नही, किन्तु धर्म के नाम पर वशीभूत हो जाने में अकीति है । धस का साम्राज्य साधु-सन्त, वैरागी ओर देव-नाह्यणो को मुबारक हो, मे तो ठहरा सम्राट । मैं तो एक शक्ति को ही पहचानता हूँ । कंसने क्रूर हो कर वसुदेव के सात निरपराध वालको का वध किया । छृष्ण-जन्म के ससय ईश्वरीय लीला चली ओर श्री- ऊृष्ण भगवान की जगह कन्या-देहधार शक्ति कंस के हाथ लगी। उसे कंस ने जमीन पर पछाड़ा, परन्तु शक्ति से कही शक्ति थोड़ी ही मर सकती थी ? वसुदेव ने श्रीकृष्ण को गुप्त रूप से गोकुल से रक्खा, किन्तु इेश्वर को कोई वस्तु गुप्त रखना खीकार न था । इंश्वरको प्रसिद्ध हो जाने का कौन सा भय था (अंग्र ० 5९८०४९८८५७) शक्ति ने अद्टद्दास कर के भोचक कंस से कहा, तिरा शत्र तो गोकुल मे दिन दूना ओर रात चौगुना चद रहा है |” मथुरा से गोकुल वृन्दावन जहुत दूर नहीं है, चार पोच कोस भी नही है। कंस ने श्रीकृष्ण को सार डालने के लिए जितने हो सके, प्रयत्न किये । चिन्तु वह्‌ यह्‌ जान ही न सका कि श्रीकृष्ण का मरण




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