प्राण - संगली सटिप्पण भाग - २ | Pran-sangalee Satippan Bhag - 2
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
33 MB
कुल पष्ठ :
171
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१३४ प्राण -संगली .
बधिजा! अबंधु उछ्छे नीर । वणु दणु हरीजा वलुर मन. थीर॥
नानक बोले ब्रह्मज्ञानि । कें ज्ञानी होय से टए पानि ॥५॥
अडघटः घाटि निरालम जाति। दीपक बिन उजीआरा हेति ॥
सिसे न बाटी घै न तेलु । नानक बोले इहु पूरा खेल ॥६॥
ञासणु* घरती धुणि अकाश । उं कमल मुखि कीआ बिगासु ॥
जिनि चाखिया तिसु जाया स्वादु । नानक बो इहु चिसमाटु ॥৩।
उट्टा बानु गगन को लाङञा । चंचल मिरग मारि घरि जाया ॥
रगि महलि बेटा सिकदूारी° । नानक बोरे छागी तारी ॥८॥
गर का. शब्दं गहे. हि बानु । चंचल मिरगु न दें जानि ॥
मिरगा- भिरगी देना बंधि ॥ नानक बोले विषमी संधि ॥९॥
पाता स्मु-गगन चढ़ाया | तातेँ सहजि पलटी काया ॥
गगन गाय दुह पीता क्षीर। नानक बोले चंचल धीर ॥९०॥
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उन्मनि कला घरे नित जे।ति । बिनु दीपक उज्यारा होतु ॥
देखे बिगसे आपन आपु । नानक बोले इऊँ লিই संतापु ॥११॥
তং घरि आवे चंद अरू सूरु। पंचा मरदे रहै ह्र ॥
दूज अगिन लाए चीता। नानक बोले इहु गदु जीता ॥९२॥
आसा मनसा सगलो परहरे । ऊचेः' चरि ले मनूआ घर ॥.
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नमल जाति सवे कल्याण । नानक बोरे इह पदु निरबाणु ॥१३॥
लव लागी मनू ठहराय । पम वारि नगरि सुधिपाय ॥
नगरी बेसि त्रिबीणी न्हाया ! नानक बोढै रुन्नीर माया ॥१४॥
(४) ऊपरोक्त खुला हुआ जल जब बंद किया जावा ক্র ऊपरोक्त खुला हुआ जल जब बंद किया जाता है तो उछलता है (बन्न किवाङ् `
भेदन होते है) । (२) सहस्रदल स्थान की निशानी दी है । (३) ऊपरले घट की (इस) घाटी में
अथवा इस डुगेंम घाटी में निरालंब जोति प्रकाशित है। (४) छिजती नहीं, क्षीण
नहीं होती। (४) नासका का मालिक पृथ्वी तत्त्व का देवता है सो नासका मूल पृथ्वी
(तिल-तीसरे) पर अपना आसन स्थित रवखे। और अपनी धुनि का ध्यान आकाश
(योक হী तो। (६) नम कमल बिकाशिता को प्राप्त हो जाता है। (७) शिरदारी
(मालकी) को श्राप्त होकर। (८) मन, इंद्री (5) सुष्मना घाट में (१०) शरीर का सार जो
अपने खान से पतित होता हुआ इंद्री द्वारा व्यर्थ जाता था, जब गुरू उपदिष्व युक्ति अभ्यास
ऊपर चढ़ा लेता है अर्थात् गिरने नहीं देता। (११) तीसरे तिल तथा सहसदल से भाव
है ।(१२) ऐसा अभ्यास आरंभ करतेही माया रो पड़ती है। নি त
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