भारतीय इतिहास की रूपरेखा | Bhartiya Itihas Ki Rooprekha

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Bhartiya Itihas Ki Rooprekha by जयचन्द्र विद्यालंकार - Jaychandra Vidhyalnkar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ 9 स्वीकार कर लिया | अरब जो दूसरा खण्ड है, बह तब पहला खण्ड था । उसे की टिप्पणियाँ १९२८ को सर्दियों में लिखी गई, और तभी आये सभ्यता वाला प्रकरण (= प्रकरण ८ ) भी । श्रब जो तीसरा खण्ड है उस के सभ्यता के इतिहास-सम्बन्धी अंश १९२९-३० में पूरे किये गये । मुके तब यह अनुभव होने लगा कि भारतवर्ष की जातीय भूमियों की विवेचना भूमिका में करना आवश्यक है। तब भूमिका-खण्ड १९३० के उत्तराधे ओर ३१ के शुरू में काशी में लिखा गया । उस सिलसिले में कम्बोज ऋषिक आदि प्राचीन उत्तरापथ के कई देशों का पता चला ; और उस फारण, ठीक जब मैं अपने प्रन्थ के लग- भग पूरा हुआ समझ रहा था, मुझे उस में अनेक परिवत्तेन करने पड़े। ठीक उसी समय जायसवाल जी ने शक-सातवाहन इतिहास पर नई रोशनी डाली जिस से मुझे समूचा सातवाहन युग भी फिर से लिखना पड़ा। १९३१ की गर्मियों में देहरादून में बैठ कर मौय युग को दोहराया और उस का सम्यता- इतिहास का अंश ( १७ वाँ प्रकरण ) लिखा गया। उसी बरस सर्दियों में प्रयाग में सातवाहन युग फिर से लिखा गया; संबत १९८८ की माध पूर्णिमा (फरवरी १९३२) को प्रयाग में वह्‌ काये पूरा हुआ । १९३२ मे बरस भर यह ग्रन्थ प्रकाशक के पास पड़ा रहा; पर १९३२ के माचे से अगस्त तक उस की छपाई के समय मेने उस में अन्तिम संशोधन किये। मेरा विचार था कि गुप्त-युग का इतिहास भी इसी ग्रन्थ के साथ प्रकाशित होगा। सन्‌ १९२७ में मैंने उसे जैसा लिखा था, वह मेरे पास पडा है; पर विद्यमान दशाओं में उसे दोहरा कर ठीक करने को मेरे पास अवकाश नहीं है । इस रूपरेखा में अनेक कमियाँ हैं सा मुझे खूब मालूम है। पाठक-पाठि- काओं से मेरी प्रार्थना है कि वे यह भूले नहीं कि यह भारतीय इतिहास की केवल रूपरंखा है; ओर साथ ही मेरे पास जो तुच्छ साधन थे उन्हीं के आधार पर मैंने इसे प्रस्तुत किया है । हिन्दी में अभी तक इतिहास-लेखन की केाई पद्धति नहीं बनी। मेरे रास्ते में यह बड़ी कठिनाई रही । आधुनिक पाश्चात्य ज्ञान को अपने दिमाग




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