उजड़े घर | Ujade Ghar

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Ujade Ghar by विश्वम्भर मानव - Vishwambhar Manav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ उजड़े घर ' अन्न स्वीकार करने लगी थी | कुछ रुपये उसने जोड़ रखे थे । गाँव में खर्च अधिक था नहीं । फिर बच्चे छोटे थे और लड़का श्रभी बहुत दिन तक कुछ करने योग्य नहीं था; इसी से विद्या की मा को घर की चिन्ता खाये जाती थी । विद्या बचपन से ही कुछ बुद्धिमती थी । घर की स्थिति को वह सम- भती थी। विवाह के उपरांत जब वह अपने घर पहुँची, तो उसने देखा किसी प्रकार का कोई श्रभाव नहीं है । गौने के उपरांत अपनी छोटी बहिन की वह अपने साथ ले आई । बीच-बीच में भाई भी दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह दिन रहने लगा । दीनबन्धु को इसमें कोई आपत्ति न थी। उन्होंने देखा इससे विद्या अकेली भी नहीं रहेगी श्रोर उसका मन भी लग जायगा । मायका दुर नहीं था; श्रतः दीनबन्धु जब कपड़ा लेने दिल्‍ली या बम्बई जाते तो विद्या अपने गाँव चली जाती थी । विद्या के विवाह के उपरांत उनका व्यापार और भी चमक उठा; अतः साले और साली का रहना उन्हें बिल्कुल नहीं अखरा । झ्रागें चलकर दया स्थायी रूप से अपनी बड़ी बहिन के पास ही^रहने लगी । उन दिनों जैसा भी संभव था, दया की शिक्षा का प्रबन्ध दीनबंधु ने कर दिया। घर के कामकाज में विद्या उसे निपुण कर ही रही थी । क़द में अपनी बहिन के समान लम्बी होने पर भी दयावती रूप सें एक- दम भिन्न थी । विद्यावती का रङ्क जहाँ गेहुआँ था, वहाँ दयावती का एक- दम कर्पूर गौर । उसके अज्भ-प्रड्भ में ऐसा लावरय था, ऐसी कोमलता थी, ऐसा लोच था कि उसकी गणना सुन्दरतम युवतियों में की जा सकती-थी । जसे-जेसे वह बडी हो रही थी, वैसे ही वैसे उसका लावरय निखर रहा था । उस पर किसी की दृष्टि न पड़ जाय, इस डर से विद्या ने उसका पढ़ना और बाहर निकलना बन्द कर दिया और अपने पति से कहा कि उसके लिए लड़का ढूंढ़ें । दीनबन्चु को अपने काम से बहुत कम अवकाश मिलता था; फिर भी लड़का ढूंढ़ने में उन्होंने कोई कसर बाकी न रखी । लेकिन विद्यावती थी कि उसको कोई लड़का पसन्द ही न आया और जैसे-जैसे दया बडी होने लगी विद्या की चिता भी बढ़ने लगी ।




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