सर्वोदय - विचार | Sarvodaya - Vichar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
98
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सर्वोदिय-समाज क्यों ? १५
ভুতল के बाद यह विचार मैने गाधीजी के सामने रक्खा । उन्होने अपनी
भाषा मेँ कहा, तेरा अभिप्राय मै सम गया । तू सेवा करेगा, लेकिन
अधिकार नही रखेगा । यह ठीक ही ह ।” इसके वाद जिन-जिन सस्थाओ
में मे था, उनसे इस्तीफा देकर अलग हो गया । वे सस्थाये मुभे प्राण-
समान थी । उनके उद्देश्यों और कार्यक्रमों को अमल में लाने की कोशिज
वरसो से म करता आया था । उनसे अलग होते समय दुख जरूर हुआ ।
लेकिन आनद का भी अनुभव किया । क्योकि उन सस्थाओ की मदद तो
में करने ही वाला था। लेकिन अहिसा के विकास के लिए मुक्त रहना
जरूरी समभता था। हा, इसके साथ में यदि इस नतीजे पर आया होता--
जैसा कि शकररावजी ने सूचित किया--कि “कोई भी सस्था जब बनती
है तब उसमे थोडी हिंसा तो आ ही जाती हैँ” तो उतनी थोडी हिसा कौ
भी गुजाइश में नही रखता। और आप लोगो को यही कहता कि “किसी
भी सस्थामे अप न जाय ।”
शस्त्रो के बारे मे आज हम इस नतीजे पर आये हे कि शस्त्रधारण
करने से हिसा ही बढती है । लेकिन एक जमाना था जब कि धर्म या सत्यथ
की रक्षा के लिए दयाल पुरुषो ने शस्त्र-धारण करना जरूरी समभा था ।
उस जमाने मे शस्त्रो का कुछ बचाव भी हो सकता था। लेकिन आज तो
हेम इस निर्णय पर आये हूँ कि शस्त्रो से लाभ नही होता । हानि ही होती
है । पुराने जमाने में भी शस्त्रो पर भरोसा न रखनेवाले कुछ व्यक्ति थे ।
लेकिन वे व्यक्तिगत जीवन में ही वेसी श्रद्धा रखते थे । सारे समाज को
शस्त्र छोडने के लिए कहने की हिम्मत वे भी नही करते थे । तुकारामः
महाराज से यदि शिवाजी महाराज पूछते कि क्या शस्त्र छोड देने कौ आप
मुझे सलाह देंगे”, तो शायद तुकाराम यही कहते कि “तुम्हारी प्रवृत्ति
को देखते हुए तुम्हे शस्त्र छोडने के लिए में नही कहगा । बैद्यपि मेरी
प्रवृत्ति मुझे शस्त्र-धारण को नही कहती । अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार
चलता ही धर्म हो जाता है ।/ लेकिन आज की विज्ञान की गति को देखते
हए शस्तो के उपयोग से जो अपार हानि होगी, उसकी तुलना मे उनसे
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