जैन बौद्ध और गीता का साधना मार्ग | Jain Bauddh Aur Gita Ka Sadhana Marg
श्रेणी : धार्मिक / Religious, पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
166
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)= ११ ~
समन्वय को धारा
यद्यपि उपरोक्त आधार पर हम प्रवर्तक धर्म अर्थात् गैंदिक परम्परा और निवर्तक
धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनकं सास्कृतिक एवं दाशं निक
प्रदेय को समक्ष सकते ह किन्तु यह मानना एक श्रान्ति पूर्ण हो होगा कि आज वैदिक
धारा ओर श्रमण धारा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाये नखाहे। एकहीदैश् भौर
परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिए यह अमम्भव था कि वे णक दूसरे के प्रभाव
से अछूती रहे । अतः जहाँ वैदिक धारा में श्रमण धारा (निवर्तक धर्मं परम्परा) कै तत्त्वों
का प्रवेश हुआ हैँ, वहाँ श्रमण धारा म॑ वैदिक धारा (प्रवतंक धर्म परम्पण) के तत्त्वों
का प्रवेश हुआ हैं । अतः आज के युग में कोई धर्म परम्परा न तो एकान्त निवृत्ति मार्न
की पोपक है और न एकाब्न प्रवृत्ति मार्ग की पोषक ह ।
वस्तुतः निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में 7एक्रान्तिक दष्टिकोण न तो व्यवहारिक
है और न मनोवैज्ञानिक ! मनुष्य जब तक मनुष्य ह, मानवीय आत्मा जब तक
शरीर के साथ योजित होकर सामाजिक जीवन जीती है तब तक एकान्त प्रवृत्ति भौर
एकान्त निवृत्ति की बात करना एक मग-मरोचिका में जीना हें। वस्तुत आवश्यकता
इस बात की है कि हम वास्तविकता को समझे आर प्रवृनि तथा निवत्ति के तत्त्वो
मे समुचित समन्वय से एक ऐसी जीवन शैली खोजे, जो व्यक्त और समाज दोनो के
लिए कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनित मानसिक एवं सामाजिक मत्रास से
मुक्ति दिला सकं ।
भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न हा। रहे हैँ । प्रवर्तक वारा के प्रतिनिधि
हिन्दू धर्म मे ऐसे समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण ईशावाम्यापनिषद् आर भगवद्गीता
है। भगवद्गीता मे प्रवृत्ति मार्गं ओर निवनि मागं के समन्वय करा स्तुत्य प्रयास हुआ है ।
यद्यपि निवर्तक धारा का प्रतिनिधि जेनप्र्म श्रमण परापरा मुख स्वस्पका रक्षण
करता रहा है, फिर भी परवर्ती काल में उसकी साथना पद्धति में प्रवतक धर्म के
तत्त्यों का प्रवेश हुआ ही है। श्रमण परम्परा की एक अन्य धारा के रूप में विकसित
बौद्धधर्म में तो प्रवर्तक धारा के तन्चों का इतना अधिक प्रवेश हुआ कि महायान से
तन्त्रयान की यात्रा तक वह अपने मूल स्वरूप से काफी दूर हो गया । किन्तु यदि हम
काटक्रम में हुए इन परिवतंनों का दृष्टि से ओझल कर द, तो इतना निश्चित हे कि
अपने मूल धारा के थोडे बहुत अन्तरों का छोटबर, जन, बाद्ध और गीता की साधना
पद्धतियाँ एक दूसरे के कार्फी निकट हैं ।
प्रस्तुत प्रयाम में हमने इन तीनो की साधना पद्धतियों की निकटता को स्पष्ट करने
का प्रयास किया है, जहों जो अन्तर दिखाई दिये, उनका भी यथास्थल सक्रेत कर दिया
हैं। इस तुलनात्मक अध्ययन ম हमने यथा सम्श्व तटस्थ दृष्टि से विचार किया है।
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