साहित्य - प्रवाह | Sahitya Pravaah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्य-ग्रवाह नीय है पर उनसे साधारण रुचिको उतनी उत्तेजना न मिल सकी जितनी जनसाधारणने अपने प्रति दिवतके मनोस्ज्ञन, नाच गाने, रास इत्यादि संस्थाओंसे परोक्ष रूपसे इसमें सहायता दी। रासधारी, नौटंकी, जोगीड़ा, लावनी आदि गानोंसे खड़ी बोलीका गढ़ दृढ़ करनेमे वड़ी सहायता मिली । इन्होंने इतने मजबूत म लेसे खड़ी बोलीकी ईटे जोड़ी कि उसपर सारा प्रहार निष्फल गया । यह लोग जान-बूभकर एेसे प्रयोग नदीं कप्ते थे किं कथिता खड़ी बोलीमं लिखी जाए । वह जनताकी रुचिके अनुसार उनके समभने योग्य भाषा काममे लाते थे। हाथरस वाले चिरज्ञालाल य नथारामका श्रवण चरित्र, सांगीत चित्रकूट, लाला गोविन्द्रामका सांगीत मैन-मैया, ओरईके पं० मातादीन चोबेका सांगीत पूरनमल, सुदामा चरित्र, तथा हस्ब्रिद्धम खड़ी बोलीकी बहार देख लीजिये। पहले तीनमें ब्रजमाष। मिश्रित भाषा है और अ्रन्तवाली पुस्तकोंम विशुद्ध खड़ी योली लिखी गयी हैं। पुस्तक छुपी हैं ओर इच्छुक पाठक पढ़ सकते हैं। केवल एक उदाहरण सांगीत हरिश्रिन्द्र से देता हूँ । दृ्श्रिबन्द्रके सत्से ज्ञानी सुनी, मंजु आसन सुरेन्द्रका हिलने लगा। जाना मनमें कि राज्य हमारा गया, सोच बस होके हाथोंको मलने लगा। हुआ सत्यके भानुसे तेज सभी पाप रूपी अन्धेरा खिसकने लगा। 5भी प्रजा श्रानन्दसे रहने लगी, नया संधिका रग-टंग बदलने लगा । आज लगभग सवा सो सालके होते हैं मिरजापुरमे रिसालगिरीतथा पश्चिम म॑ तुकनगिरि हो गये हैं जिन्होंने लावनीकी लहलहाती लता लगायी। जिनमें खड़ी बोलीके सुन्दर-मुन्दर पुष्प खिले जिनका सोरभ ताद्य संसारम सद्‌ वास करेगा । तुकनगिरि तुर्गके तरानेम॑ ब्रह्मका निरुषण करते ये। ओर रिसालगिरी कलगीकी छायाम॑ मायाका राग अलापते थे । संभव है रिसालगिरि के शिष्य दनारसी की लावनी सुननेका अवसर गुरुजनोको मिला हो । इनकी मृत्यु सं° १६५.० म॑ हृदं । लावनीकी कवितां अनेक छन्दोम रची गयी है । छोटी रंगत, बड़ो रंगत, बहरे तबील आदि मुख्य हैं। कविताएँ. रोहन और मुस्‍लीके रसमें सराबोर हैं दो एक सुन लीजिये | छोटी रंगत:--- दिलमें पाये दीदार वो बंशी बटके , शिरमोर मुकुट कटि कसे जरीके पके | कहें देवीसिंह हैं अजब खेल नटखटके | कहं बनारसी हम श्राशक नागर नयक | ५




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