प्राचीन भारतीय परम्परा और इतिहास | Prachin Bhartiya Parampara Aur Itihas

Prachin Bhartiya Parampara Aur Itihas by रांगेय राघव - Rangeya Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका डे भूखू थी वह अब खाद्य-सामग्री प्राप्त करने लगी । शांतिपवें के ७२ अध्याय यें वायु तथा पुरुखा का संलाप युघिष्ठिर को भीष्म ने सुनाया हे १०-२० ब्राह्मण सब वर्णों से पहलें पैदा हुए हैं। इसलिये पृथ्वी के सब पदार्थों पर उन्हीं का अधिकार हे। ब्राह्मण अपना ही खाते भौर अपनी ही वस्तुएँ दान करते हें क्योंकि सब कुछ उन्हीं का हे । ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ तथा गुरु हैं । जेसे पति के न रहने पर स्त्री देव को पति बना लेती है वैसे ही बाह्मण से सुरक्षित न होने पर पृथ्वी ने क्षत्रिय को अपना स्वामी बना लिया है । फिर राजा का गुणगान हैं । कलश यज्ञ है राजा के ही अधीन है । अराजकता में यज्ञ की नौबत नहीं आती यह यज्ञ परवर्त्ती यज्ञ हैं क्योंकि स्पष्ट हे देखिये ब्राह्मण को खेद था कि वह निबेल हो गया था । क्षत्रिय भी क्षेत्र में आ गये । इसके अतिरिक्त झांतिपर्वे में पांचराज वेष्णव शव प्रभाव तथा परवर्त्ती अहिसा का मुखर प्रभाव बढ़ रहा था । ब्राह्मणों ने अहिसा अपनाने की चेष्टा की । महाभारत-वनपर्व २०८ अ० ३०-४० में पूर्ण अंहिसा को असंभव बताया गया है । उपरिचर वसु कथा इसकी पुष्टि करती है तभी कहा है--सत्ययुग के यज्ञ में पशु-अध नि ? 7 हे महाभारत शांतिपवं २४१ अ. ८०-८२ त्रेता से मानस यज्ञ का प्रारम्भ की दी कथमग्नि पुररह भवेयमिति चिन्त्य सः । कल अपइ्यदर्निवल्लोंकांस्तापयन्त॑ महा मुनिम्‌ ॥१र।॥। सो ्पासर्प च्छनभीतस्तमुवाल तदार्गिरा । शीघ्यमेव भवस्वाग्निस्त्व॑ पुनर्दोक मावन ॥१३॥ घिज्ञात इचासि लोकषु ग्रिषु संस्थन्निचरिषु । त्वमग्नि प्रथम सृष्टो ब्राह्मणा तिमिरापहः । स्वस्थानं प्रतिपद्यस्व शीघ्यमेव तमोनुद ॥१४॥। नष्ट कीत्तिमहं लोके भवान्‌ जातो हुताशनः । भवन्तमेंव नास्यत्ति पावक न तु मां ड्ना ॥ १५॥। ऩिक्षिपान्य हमर्नित्व॑ त्वग्नि प्रथमो भव । भविष्यामि द्वितीयोड्हं प्राजापत्यक एव च ॥1१६॥ अंगिरा उवाच-- कुरूपुराष प्रजास्वरग्य॑ भवाग्निस्तिमिरा पह 1 मांच देव कुरूष्वागने प्रथम पुत्रमंजसा ॥१७॥। राजन्‌ वृहस्पतिनाम्‌ तस्थार्गिरस सुत ॥१८॥ ज्ञात्सा प्रथमजं तनतू वन्तेरांगिरसं सुतम्‌ । उपेत्य देवा पप्रच्छ कारण तत्र भारत ॥१९॥। स तु ._ पृष्टस्तदा देवेस्ततः कारंणमब्रवीत्‌ । प्रत्यगस्तु देवाइच तढ़चोध्गिरास्तदा ॥२०॥




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