योग दर्शन | Yog Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिकां ७ यदात्मतर्वेन तु अह्मतत्ं दीपोपमनेह युक्तः प्रप्येत । अज घ्रुवे सवतत्तवेविशुद्ध ज्ञात्वा देव॑ मुच्यते सवपादार ॥ १९ ॥ फिर जब युक्त दो कर आत्मतत्व के दीपक से घ्रह्मतत्व को देखता है जो ब्रह्मतत्व अजन्मा अंदछ और सारे तत्वों से शुद्ध है तब इस देव को जानकर सारी फांसों से छूट जाता है मुक्त होता है ॥ १५॥ यद्यपि उपनिषद॒॒ हमें यहां योग से आगे पहुंचाती है तौभी योग में यह कोई विरोध वा ज्रुटि नहीं । योग भी हमें ईश्वर का स्वरूप बतलाता है और उसका प्रणिघान .सिख- लाता है देखो योग० १ । २३-२८ ॥ यहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है माना कि योगदशंन में ईश्वर और उसके प्रणिघान का वर्णन है तथापि मुख्य विषय यहां पुरुष का अपने स्वरूप में अवस्थित होना ही चणन किया है इसी को माना है ईश्वर प्रणिघान भी आत्मद्शंन के उपाय के तौर पर वणन किया हैं न कि मुख्यतया जैसा कि कहा है --- ततः प्रत्यकू चेतनाधिगमाप्यन्तरायाभा- वच योग० १.। २९ तब उपनिषद॒ और योग की मुक्ति में भेद क्यों नहों 2 इस के उत्तर में हम यही कहते हैं हां निःसंदेह इनमें भेद नहीं भेद परम तात्पयं पर न पहुंचने में प्रतीत होता है। ब्रह्म के दो




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