कुछ सच कुछ झूठ | Kuchh Sach Kuchh Jhooth

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Kuchh Sach Kuchh Jhooth by गोपाल प्रसाद व्यास - Gopalprasad Vyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द कुछ सच : कुछ भूठ जल से बालटियों से नहलाया जाता । आगरे में उन दिनों नई-नई प्रगति- शील लेखक संघ की शाखा खुली थी । श्री प्रकाशचन्द्र गुप्त की प्रेरणा से मैं भी उसके पाँचवें सवारों में था । मालूम पड़ता हे कि इसकी छूत मेंस को भी लग गई और उसने वर्गभेद के विरुद्ध बगावत कर दी। एक दिन जब बाबूजी की. पत्नी गुसलखाने में स्नान कर रही थी तो भंस भी अपना अधिकार समझकर उसमें घुस पड़ी । संकरा दरवाजा, छोटी जगह ! मेंस घुस तो गई, मगर अब निकले कंसे ? बच्चे-कच्चों ने जो छेडछाड की तो भेंस बिगड गई । घर में कुहराम मच गया । कॉलेज से दौड़े-दौड़े बाबूजी घर आए । हम लोगों ने सुना तो हम भी कौतुकवश जा पहुँचे । अजीब दृद्य था । एकदम नई उलभन थी । प्रगतिशील. मेंस के बढ़े हुए कदम प्रतिक्रियावादी होने को कतई तैयार न थे । उसे पुचका रा मगर वह नहीं पिघली । गया; मगर वह नहीं लौटी । सरसों की हरी-हरी डालियाँ तोडकर उसे लछचाया गया, मगर सच्चे क्रान्तिकारियों की तरह उसने उनकी ओर भकाँका तक नहीं । आखिर लम्बे-लम्बे रस्से मंगवाए गए। कुछ को पेरों में बाँधा गया, कुछ को कमर में फंसाया गया । एक बडी बत॑ गले में अटकाई । तब कहीं राम-राम कहकर, दस-बारह आदमियों ने, अक्ल से नहीं, पद्ुबल से ही भेंस को गसलखाने से बाहर निकाला । बाहर निकलने पर उसने बड़े विजय गयें से पूंछ उठाकर हमें देखा । मानो चुनौती देरही हो कि बोलो, आदमी की अवक्ल के कितने पेसे उठते हूं ? मेरे अन्तर के तार एकदम जैसे भनभना उठे ! मेरे सृप्त भावों की सरोवर में जैसे किसीने गहरी. ईंट फेंक दी । मानो गहरी नींद में सोते हुए मुककको किसीने जोरों से चिकोटी काट ली । मेरा मन हर्षा- तिरेक से भर गया ! अनायास ही व्यंग्य और विनोद मेरी बाहों में आ गए और बोलें : कवि, लो आज से हम तुम्हारे हुए ! मेंने मन-ही-मन -कृष्णस्वरूपा पयस्बिनी अपनी इस आदि-प्रेरणा को नमस्कार किया .' और उसी दिन से बिना के में हास्यरस लिखने लगा ।




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