तुलसीदास और हिन्दू समाज | Tulsidas Aur Hindu Samaj
श्रेणी : धार्मिक / Religious, हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.87 MB
कुल पष्ठ :
210
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भोलेभाले लोगों के सामने श्रात क यह रहता है कि जब रघुकुल के महाराजागों
को भी श्रपने पुरोहितो की मांग श्रौर श्राज्ञाप्रो का उल्लघन करने का साहस
नहीं हुम्ना था तो, हो न हो, इस में कुछ बात होगी ही. श्रौर श्राज के
कथावाचक पंडित भी रामायण की कथा बाचते समय इस प्रकार के प्रसंग पर
विशेष समय श्रौर श्रम लगा कर व्याय्या करते हैं. “मुनिश्नेष्ठ वदिप्ठजी मे जहा
जैसी श्राज्ञा दी, वहा भरतजी ने सब वैसा ही हजारों प्रकार से किया दुद्ध हो
जाने पर सब्र दान दिए. गीएं तथा घोडे, हाथी श्रादि श्रनेक प्रकार की सवारियां
दी. सिंहासन, गहने, कपडे, श्रनन, पृथ्वी, घन श्रौर सकान भरतजी ने दिए भूखे
ब्राह्मण दान पा कर परिपूर्ण हो गए यानी उन की सारी मनोकामनाए श्रच्छो
तरह से पुरी हो गई.” देखिए यह वर्णन:
जह जस मुनिवर श्रायसु दीन्हा, तह तम सहस भाति सब कोन्हा
भए चिसुद्ध दिए सब दाना, घेंनु वाजि गज वाहन नाना
सिघासन भ्रूपन वसन, शर्त घरनि. धन धाम,
दिए... भरत लहि भ्रूमिसुर, भे परिपुरन काम
श्रौर किसी भी वात के श्रीचित्यश्रनीचित्य पर विचार करने लायक तो
तुलसी ने श्राम श्रादमी को छोडा ही नहीं क्योकि “घर्मगुरुओो, की श्राज्ञा को न
मानने से घर्म के चले जाने का भय दिखाया गया है श्रीर सिर पर पाप का भार
चढ़ने का श्रातंक वेठाने का भी सारा प्रवंघ 'ब्नाह्मणश्रेप्ठ तुलसीदास' कर गए हैं.
उचित कि श्रनुचित किए विचारू, घरम जाइ सिर पातक भारू
सहज स्वाभाविक ढंग से जो छींक या जमुहाई श्राती है, उस तफ को घाकुन-
श्रपशाकुन के साथ जोड कर श्रंघविदवासो का जो बोझ तुलसी ने हमारे पुर्वजो
की पीठ पर लाद दिया था, उसे हम श्रभी तक ढोए चले जा रहे हैं. उदाहरणार्य
मिलाप के लिए सेना सहित श्राते हुए भरत को देख कर राम श्रोर लक्ष्मण मुका-
बला करने को तयार हो जाते हैं, तभी वाई श्रोर से किसी को छींक श्राती है:
“*एुतना कहत छीक भई वाए, कहेउ सगुनिग्नन्ह खेत सुहाए ”'
(इतना कहते ही वाई तरफ छोक हुई. शकुन विचार करने वालों ने कहा
कि खेत सुदर है यानो जीत निष्चित है )
तभी एक बूढे ने विचार कर राम से कहा, “भरत से मिल लें तो
उन से लडाई नहीं होगी. भरत रामजी को मनाने श्रा रहे हैं. बाकुन ऐसा कह
रहा है कि विरोध नहीं है.” देखिए थे पक्तिया :
दूढ एक कह सगुन विचारी, भरतहि मिलिग्र न होइहि रारी.
रामहि भन््तु मनावन जाही, सगुन कह श्रस बिग्रह नाही
इसी प्रकार जमुहाई लेते समय “*रामराम' कहने का उपदेश भी रामच रित्त-
मानस में हो दिया गया है
रमराम कहि जे जमुहाही, निन्हहिं न पाप पुज समुहाही
(जो लोग “रामराम' फह कर जमुहाई लेते हैं, उन के सामने पाप श्रा ही
| श
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