जैनपदसंग्रह भाग 5 | Jainpadsangrah Bhag 5

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jainpadsangrah Bhag 5  by नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

Add Infomation AboutNathuram Premi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( ५) ज्ञानमरईं हमको दरसाये । ऐसे ही हममें हम जानें, बुधजन गुन मुख जात न गाये ॥ श्रीजिन० ॥ ३ ॥ ९ वि क न 1 चधाई राजै हो आज राजे, बधाई राजे, नाभिरायके दधार ইল सची सुर सव मिङि आये, सजि ल्याये गजराजे ॥ बघाई० ॥ १ ॥ जन्मसदनतं स्वी षभ ङः सोपि दये सुरराज । गजयै धारि गये सुरगरिपै, न्दोन करनके ऋज || बधाई० ॥ २ 1 आट सहस सिर करुस जु ढारे, पुनि सिंगार समाजे ! स्याय धो मृरुदेवी कर्मः, हरि नाच्यौ सुख साजे ॥ वधाई० ॥ ३ ॥ रुच्छन व्यंजन सहित सुभग तन, कँचनदुति रवि रजे ! या छविं बुधजनके उर निशि दिन, तीनज्ञानज्जुत राजे ॥ वधाई० ॥ ४ ॥ तग-छलित के तितालो । हो जिनवानी जू , तुम मोकों तारोगी ॥ हो० ॥ देक ॥ आदि अन्त अविरुद्ध वचनत, संशय श्रम निरवारोगी ॥ हो० ॥ १ ॥ ज्यों प्रतिपाछत गाय वत्सर्को, त्यौ ही सुझकों पारोगी। सनमुख कार बाध जव अवे, तव तत्का उवारोगी ॥ हो० ॥ २ ॥ बुधजन दास चीनने माता, या विनती उर धारोगी। उलझि रहा हूं मोह- जालमे, ताकों तुम सुझझारोगी ॥ हो० ॥ ३ ॥ (११) राग-विखाचट कनडी 1 मनक हरष अपार-चितक हरष अपार, वानी सुनि




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now