भारतेंदु हरिश्चचंद्र ग्रन्थावली | Bharatendu Harishchandra Granthabali Vol. 6

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मन को बहुत लुभाता है और जब कभी जल विशेष लेना होता है तो तखतों को उठा लेते हैं फिर तो इस वेग से जल गिरता है जिस का वर्णन नहीं हो सकता और ये मल्लाह दुष्ट वहां भी आश्चर्य करते हैं कि उस जल पर से नाव को उतारते हैं या चढ़ाते हैं। जो नाव उतरती है तो यह ज्ञात होता है कि नाव पाताल को गई पर वे बड़ी सावधानी से उसे बचा लेते हैं और क्षण मात्र में बहुत दूर निकल जाती है पर चढ़ाने में बड़ा परिश्रम होता है। यह नाव का उतरना चढ़ना भी एक कौतुक ही समझना चाहिए। इस के आगे और भी आश्चर्य है कि दो स्थान नीचे तो नहर है और ऊपर से नदी बहती है। वर्षा के कारण वे नदियां क्षण में तो बड़े वेग से बढ़ती थीं और क्षण भर में सूख जाती हैं। और भी मार्ग में जौ नदी मिली उन की यही दशा थी | उन के करारे गिरते थे तो बड़ा भयंकर शब्द होता था और वृक्षों को जड़ समेत उखाड़ के बहाए लाती थी। वेग ऐसा कि हाथी न संभल सके पर आश्चर्य यह कि जहां अभी डुबाव था वहां थोड़ी देर पीछे सूखी रेत पड़ी है और एक स्थान पर नदी और नहर को एक में मिला के निकाला है। यह भी देखने योग्य है। सीधी रेखा की चाल से नहर आई है और बेंड़ी रेखा की चाल से नदी गई है। जिस स्थान पर दोनों का संगम है वहां नहर के दोनों ओर पुल बने हैं और नदी जिधर गिरती है उधर कई द्वार बना कर उस में काठ के तखते लगाए हैं जिस से जितना पानी नदी में जाने देना चाहैं उतना नदी में और जितना नहर में छोड़ना चाहैं उतना नहर में छोड़ें । जहां से नहर श्री गंगाजी में से निकाली है वहां भी ऐसा ही प्रबन्ध हे ओर गंगाजी नहर में पानी निकल जाने से दुबली और छिछली हो गई हैं परन्तु जहां नील धारा आ मिली है वहां फिर ज्यों की त्यौं हो गई हैं। हरिद्वार के मार्ग में अनेक प्रकार के वृक्ष और पक्षी देखने में आए । एक पीले रंग का छोटा पक्षी बहुत मनोहर देखा गया । बया एक छोटी चिड़िया है उस के घोंसले बहुत मिले । ये घोंसले सूखे बबूल ओर काटे के वृक्ष में हें और एक एक डाल में लड़ी की भांति वीस बीस तीस तीस लटकते हैं । इन पक्षियों की शिल्पपिद्या तो प्रसिद्ध ही है लिखने का कुछ काम नहीं हे इसी से इन का सब चातुर्य्य प्रगट हे कि सब वृक्ष छोड़ कं कांटे के वृक्ष में घर बनाया है। इस के आगे ज्वालापुर ओर कनखल और हरिद्वार है जिस का वृत्तान्‍्त अगले नम्बरों में लिखूंगा। पुरुषोत्तम शुक्ल 10 आप का मित्र यात्री किविवचन सुधा 30 अप्रैल सन 1871 ई. 4 / भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ग्रन्थावली-6




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