सत्य हरिश्चन्द्र | Sataya Harishchandra

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Sataya Harishchandra by कविरत्न उपाध्याय श्री अमरचन्द्र जी - Kaviratn Upadhyay Shri Amarchandra Ji

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about कविरत्न उपाध्याय श्री अमरचन्द्र जी - Kaviratn Upadhyay Shri Amarchandra Ji

Add Infomation AboutKaviratn Upadhyay Shri Amarchandra Ji

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
[ ७ | बनी--कठिन श्रम उठाना स्वीकार किया उपेक्षा, घृणा, कष्ट सब कुछ-- अपने आशा-धन रोहित पुत्र को सामने रख कर सहने का ब्रत लिया। भविष्य की कल्पनाएँ उसके साथ ईँ---कभी रोहित उसका उद्धार कर सकेगा मगर भाग्य-चक्र में रोहित भी असमय उसका साथ छोड़ देता है, काल-सपे का कठिन प्रहार सुकुमार बालक नहीं सह सका। माता का हृदय एक बार ही विदीणों हो गया--उसकी यह चीत्कार-- हा रोहित, हवा पुत्र ! अकेली छोड़ मुझे तू कहाँ गया ! में जी कर अब् बता करू क्या ! लेचल मुकको जषा गया । पिद्धला दुख तो मूल न पाई, यह श्रा वज नया टूटा | तारात्‌ निभागिनि कैसी, भाग्य सर्वथा तव पटा ॥ -- की ध्वनि-प्रति ध्वनि किसी भी हृदय को कंपित कर देने में समर्थं ই मगर द्विज-पुन्न को इससे क्या, तारा उसकी दासी है उसे सुख पहुँचाने के लिए, अपने रुदन-स्वर से उसका हृदय दुःखित करने के लिए नहीं । वह चिल्ला पढ़ता है-- रोती क्यों है ? पगली हो स्या गया ? कोन-सा नभ टटा, बालक ही तो था दासी के जीवन का बन्धन-छूटा। . 9 ` ৯ ১ क्या उपचार ? मर गया वह तो मृत भी क्‍या जीवित होते ? हम स्वामी दासों के पीछे द्रव्य नहीं अपना खोते । यह स्वामित्व, मानवता के लिए कितना बढ़ा श्रभिशाप है ? ओह ! हरिश्चन्द्र का चारिश्रिक 'क्लाइमेक्स' कुफन कर वसूल करने में हमारे सामने आता है--सेवक का कतेव्य वह नहीं छोड़




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now